उत्तर प्रदेश के मेरठ की कैंचियों का शहर के तौर पर भी होगी है जहां कैंची बनाने का कारोबार करीब 400 साल से. जहां के कैंचियान मुहल्ले में कैंची बनाई जाती है.
मुगलों के लिए तलवारें बनाने वाले यहां के कारीगरों ने कैंची बनाने की शुरुआत की. कहते हैं कि बेगम समरू विदेश से पहली बार कैंची जैसा हथियार ले आए जिसे कारीगरों ने बाद में कैंची का आकार दे दिया.
500 तरह की कैंची मेरठ में दिख जाएगी. कीमत अठन्नी से शुरू होकर हज़ार रुपये जाती है. कोतवाली और लिसाड़ी क्षेत्र में कैंची का कारोबार खूब चलता है.
1956 के यूपी गजेटियर में जिक्र किया गया है कि 90 साल पहले आखून व उनके वंशज, हर दिन आधा दर्जन नई कैंची बनाया करते थे. अल्ला बक्श व मौला बक्श, उनके साथ दर्जनों कारीगरों काम करते गए.
यहां से कबाड़ पिघलाया जाता, फिर हाथ की कारीगरी से कैंची तैयार करते गए. श्रीलंका, नेपाल से लेकर पाकिस्तान, चीन व यूरोप के साथ ही अफ्रीका जैसे देशों कैंचियों का आयात होता गया.
स्पि्रंग स्टील व पुरानी गाड़ियों की कमानी पिघलाया जाता है जिससे ब्लेड तैयार होता है फिर पुराने पीतल, बर्तन, एल्यूमीनियम को पिघलाकर कैंची का हैंडल तैयार किया जाता है. रेलवे की पुरानी स्पि्रंग को भी इसके लिए री-साइकिल किया जाता है.
मेरठ में हर दिन लगभग दस हजार कैंचियां बनाई जाती हैं. करीब 125 इकाइयां कारोबार लगती हैं और 30 बड़ी इकाईयां भी हैं.
प्रत्यक्ष रूप से तो यहा पर तीन हजार लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से 25 हजार कारीगरों को कैंची उद्योग से रोजगार मिलता है. जिसका सालाना टर्नओवर लगभग 10 करोड़ है.
प्रत्यक्ष रूप से विदेश में भेजे जाने का तो व्यापार नहीं होता लेकिन एजेंटों के जरिए श्रीलंका, नेपाल, चीन के साथ ही भूटान, पाकिस्तान जैसे देशों में बहुतायत में कैंचियां भेजी जाती हैं.कैंची की धार, संतुलन एवं टिकाऊपन इस विशेष बनाती है.