वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं, पढ़ें साहिर लुधियानवी के दमदार शेर

Ansh Raj
Sep 29, 2024

लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं रूह भी होती है उस में ये कहाँ सोचते हैं

रूह क्या होती है इस से उन्हें मतलब ही नहीं वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं

रूह मर जाती है तो जिस्म है चलती हुई लाश इस हक़ीक़त को समझते हैं न पहचानते हैं

कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है कितनी सदियों से है क़ाएम ये गुनाहों का रिवाज

लोग औरत की हर इक चीख़ को नग़्मा समझे वो क़बीलों का ज़माना हो कि शहरों का रिवाज

जब्र से नस्ल बढ़े ज़ुल्म से तन मेल करें ये अमल हम में है बे-इल्म परिंदों में नहीं

हम जो इंसानों की तहज़ीब लिए फिरते हैं हम सा वहशी कोई जंगल के दरिंदों में नहीं

इक बुझी रूह लुटे जिस्म के ढाँचे में लिए सोचती हूँ मैं कहाँ जा के मुक़द्दर फोड़ूँ

मैं न ज़िंदा हूँ कि मरने का सहारा ढूँडूँ और न मुर्दा हूँ कि जीने के ग़मों से छूटूँ

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