मैसूर के महाराजा ने बनवाई थी चुनाव में अंगुली पर लगाई जाने वाली स्याही

स्याही का इतिहास

आइए स्याही के इतिहास, इसकी खासियत और लोकतंत्र में इसकी भूमिका को समझते हैं.

स्याही का इस्तेमाल

वोटिंग के लिए स्याही का इस्तेमाल सबसे पहले 1962 में भारत में हुआ था. उस समय चुनाव आयोग ने धोखाधड़ी रोकने के लिए इस स्याही विकसित करने का फैसला किया था.

आसानी से नहीं मिटती

यह स्याही आसानी से नहीं मिटती और करीब-करीब 50 दिनों तक हाथ पर बनी रह सकती है.

वोटिंग की स्याही का रहस्य

वोटिंग की स्याही में सिल्वर नाइट्रेट होता है, जो त्वचा के साथ प्रतिक्रिया करके एक नीले रंग का निशान बनाता है. यह निशान आसानी से नहीं मिटता और साबुन या पानी से धोने से भी नहीं जाता.

लोकतंत्र में स्याही की भूमिका

वोटिंग की स्याही लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. यह मतदाताओं की पहचान को सत्यापित करने और धोखाधड़ी को रोकने में मदद करती है. स्याही यह सुनिश्चित करती है कि कोई भी व्यक्ति एक से अधिक बार वोट नहीं दे सकता.

मैसूर के महाराजा नालवाड़ी

1937 में, मैसूर के महाराजा नालवाड़ी कृष्णराज वाडियार द्वारा स्थापित मैसूर लैक एंड पेंट्स लिमिटेड कंपनी ने नाखून पर लगाई जाने वाली स्याही का निर्माण किया.

मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड

1947 में भारत की आजादी के बाद यह कंपनी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बन गई और अब इसे मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड के नाम से जाना जाता है.

चुनाव आयोग का फैसला

1962 में, चुनाव आयोग ने चुनावों में धोखाधड़ी रोकने के लिए इस स्याही का उपयोग करने का फैसला किया. यह देश में पहली लोकसभा चुनाव के लिए किया गया था.

निर्माण की गोपनीय प्रक्रिया

इस स्याही को बनाने की निर्माण प्रक्रिया गोपनीय रखी जाती है और इसे नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी आफ इंडिया के रासायनिक फार्मूले के आधार पर तैयार किया जाता है.

35 देशों में एक्सपोर्ट

मैसूर पेंट्स और वार्निश लिमिटेड इस स्याही को दुनिया के 35 देशों में एक्सपोर्ट करते हैं. स्याही की 10 मिलीलीटर की एक बोतल से 800 वोटरों को निशान लगाया जा सकता है.

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