Urdu Poetry: "...ज़िंदगी अपनी उसी शाम से आगे न बढ़ी"

तुम्हारे बाद उजाले भी हो गए रुख़्सत, हमारे शहर का मंज़र भी गाँव जैसा है

वो मुझे छोड़ के इक शाम गए थे 'नासिर', ज़िंदगी अपनी उसी शाम से आगे न बढ़ी

जब से तू ने मुझे दीवाना बना रक्खा है, संग हर शख़्स ने हाथों में उठा रक्खा है

दो घड़ी दर्द ने आँखों में भी रहने न दिया, हम तो समझे थे बनेंगे ये सहारे आँसू

पत्थरों आज मिरे सर पे बरसते क्यूँ हो, मैं ने तुम को भी कभी अपना ख़ुदा रक्खा है

आसान किस क़दर है समझ लो मिरा पता, बस्ती के बाद पहला जो वीराना आएगा

ये दर्द है हमदम उसी ज़ालिम की निशानी, दे मुझ को दवा ऐसी कि आराम न आए

आप क्या आए कि रुख़्सत सब अंधेरे हो गए, इस क़दर घर में कभी भी रौशनी देखी न थी

उस के दिल पर भी कड़ी इश्क़ में गुज़री होगी, नाम जिस ने भी मोहब्बत का सज़ा रक्खा है

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