चाँद इक साथ साथ चलता था... रात के पार उतर गया शायद
दिल माँगे है मौसम फिर उम्मीदों का... चार तरफ़ संगीत रचा हो झरनों का
हम अपनी सूरतों से मुमासिल नहीं रहे... एक उम्र आइने के मुक़ाबिल नहीं रहे
वो ग़म क़ुबूल है जो तिरी चश्म से मिले... हम को हुनर तमाम उसी ज़ख़्म से मिले
अपनी ज़िंदगानी को और राएगानी को... हम उठाए फिरते हैं लोग देखते हैं क्या
हमारे दिल में भी मंज़र अजीब सैर का है... न आ सकें तो बुलंदी से ही नज़र कीजे
शहर पर तूफ़ान से पहले का सन्नाटा है आज... हादिसा होने को है या सानेहा टलने को है
हम तो यूँ उलझे कि भूले आप ही अपना ख़याल... हाँ कोई होता भी होगा भूलने वाला ख़याल
झूट नहीं था इश्क़ भी ज़ीस्त भी थी तुझे अज़ीज़... मैं ने भी अपनी उम्र को अपने लिए बसर किया