वो हवा दे रहे हैं दामन की, हाए किस वक़्त नींद आई है

जीने वाले क़ज़ा से डरते हैं, ज़हर पी कर दवा से डरते हैं

कल रात ज़िंदगी से मुलाक़ात हो गई, लब थरथरा रहे थे मगर बात हो गई

तुझ से बरहम हूँ कभी ख़ुद से ख़फ़ा, कुछ अजब रफ़्तार है तेरे बग़ैर

जाने वाले से मुलाक़ात न होने पाई, दिल की दिल में ही रही बात न होने पाई

यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है, आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया

मुझे दोस्त कहने वाले ज़रा दोस्ती निभा दे, ये मुतालबा है हक़ का कोई इल्तिजा नहीं है

काँटों से गुज़र जाता हूँ दामन को बचा कर, फूलों की सियासत से मैं बेगाना नहीं हूँ

काफ़ी है मिरे दिल की तसल्ली को यही बात, आप आ न सके आप का पैग़ाम तो आया

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