रास्ते हैं खुले हुए सारे, फिर भी ये ज़िंदगी रुकी हुई है

अपने ही सामने दीवार बना बैठा हूँ, है ये अंजाम उसे रस्ते से हटा देने का

बस एक बार किसी ने गले लगाया था, फिर उस के बाद न मैं था न मेरा साया था

थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते, कुछ और थक गया हूँ आराम करते करते

अब वही करने लगे दीदार से आगे की बात, जो कभी कहते थे बस दीदार होना चाहिए

सफ़र पीछे की जानिब है क़दम आगे है मेरा, मैं बूढ़ा होता जाता हूँ जवाँ होने की ख़ातिर

टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को, ये भी हो सकता है वो सामने बैठा ही न हो

जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता, मैं हमेशा तो मोहब्बत में नहीं रह सकता

मैं किसी और ज़माने के लिए हूँ शायद, इस ज़माने में है मुश्किल मिरा ज़ाहिर होना

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