किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से... बडी हसरत से तकती हैं महिनों अब मुलाकातें नहीं होती...

जो शामें इनकी सोहबतों में कटा करती थीं.... अब अक्सर गुजर जाती हैं कम्प्युटर के पर्दों पर...

तुमको गम के जज्बातों से उभरेगा कौन... गर हम भी मुकर गए तो तुम्हें संभालेगा कौन!

तन्हाई अच्छी लगती है सवाल तो बहुत करती पर... जवाब के लिए जिद नहीं करती...

मुझसे तुम बस मोहब्बत कर लिया करो... नखरे करने में वैसे भी तुम्हारा कोई जवाब नहीं!

तजुर्बा कहता है रिश्तों में फैसला रखिए... ज्यादा नजदीकियां अक्सर दर्द दे जाती है...

शाम से आँख में नमी सी है... आज फिर आप की कमी सी है...

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