ZEE JLF 2018 खास बातचीत: 'गरीबी से निपटने का सबसे अच्छा तरीका है गरीब को भुला दो'
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ZEE JLF 2018 खास बातचीत: 'गरीबी से निपटने का सबसे अच्छा तरीका है गरीब को भुला दो'

जाने-माने समाजशास्त्री और जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर दीपांकर गुप्ता ने शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य मसलों पर रखी अपनी बेबाक राय...

  • 20 से अधिक किताबों का लेखन या संपादन कर चुके हैं प्रो. गुप्ता
  • दुनियाभर में गंभीर पूर्वाग्रह का माहौल, सचेत रहने की जरूर- दीपांकर गुप्‍ता
  • दीपांकर गुप्‍ता ने कहा, लोकतंत्र की आत्मा हैं नागरिक

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जाने-माने समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में करीब तीन दशक से प्रोफेसर

जयपुर : 69वें गणतंत्र दिवस के मौके पर पूरे देश में दिखे उत्साह और उमंग के बीच जयपुर के दिग्गी पैलेस में चल रहे 'जी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल' में माहौल थोड़ा अलग था. इस दौरान मैंने फेस्टिवल में आए एक वक्ता से बातचीत की. वे वक्ता थे जाने-माने समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता. गुप्ता जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में करीब तीन दशक से प्रोफेसर हैं और उन्होंने 20 से अधिक किताबें लिखीं या उनका संपादन किया है. वह कई बोर्ड में रहे हैं. भारतीय रिजर्व बैंक और नाबार्ड के निदेशक मंडल में भी वह रह चुके हैं. हमने प्रोफेसर गुप्ता से उनके मॉर्निंग सेशन को लेकर बातचीत शुरू की. उस सत्र में पैनलिस्टों ने इस बात पर चिंता जताई थी कि जिस तरह से खबरें लिखीं या प्रसारित की जानी चाहिए उस तरीके ऐसा नहीं किया जा रहा है. पेश हैैं इस बातचीत के कुछ मुख्य अंश...

पूर्वाग्रह से निपटने का मसला
जो लोग लेखक, विद्वान और साहित्यकार हैं उनको एक बेहद सक्रिय जीवन जीना चाहिए और जब वे लोग कुछ लिखते हैं तो उनको इस बात को लेकर सचेत रहना चाहिए कि दुनियाभर में एक बेहद ही गंभीर पूर्वाग्रह का माहौल है. उन्हें इससे निपटने के तरीकों पर विचार करना चाहिए. दरअसल, आज हर किसी का टेलीविजन, व्हाट्सऐप जैसी चीजों तक लगातार पहुंच बना हुआ है. ऐसे में लोगों के तुरंत भटकने की संभावना काफी ज्यादा है. इसके साथ ही पूर्वाग्रह को बहुत तेजी से आगे बढ़ाया जाता है, जिसे रोकने की जरूरत है. लोकतंत्र का मूल तत्व उसके नागरिक हैं और जब मैं इस बात से सहमत होता हूं कि हमें निष्पक्ष विचारों का सम्मान करना चाहिए, उसी वक्त मैं यह भी मानना हूं कि हम किसी खास विचार से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते और यही नागरिकता का मूल्य है, जो मूल रूप से इंटरसब्जेक्टिव मसला है. यानी यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है कि मैं कैसे खुद को आपके हिसाब से ढालता हूं. इसी को लेकर सचेत रहने की जरूरत है. शिक्षाविदों, कमेंट्रेटर्स और पत्रकारों को यही करना होता है. आप केवल अपनी खबर मत फाइल कीजिए, बल्कि खुद से पूछिए कि मेरी इस खबर का असर क्या होगा.

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सामाजिक विज्ञान, लोकतंत्र और पत्रकार का मसला
सामाजिक विज्ञान ज्ञान का एक ऐसा क्षेत्र है जिसका लोकतांत्रिक देशों में ही सबसे अच्छा विकास हुआ है. किसी भी गैर लोकतांत्रिक देश, चाहे वह कितना भी अमीर क्यों न हो, उसमें इसने बहुत प्रगति नहीं की है. इसलिए यदि आप एक सामाजिक विज्ञानी हैं, तो लोकतंत्र को बढ़ावा देने में आपका निजी हित छिपा हुआ है. इससे आपकी बेहतरी होगी. कई प्रकार के सामाजिक विज्ञान हैं, लेकिन इनमें से कई बेहतरीन नागरिकता के अर्थ के सिद्धांत के साथ खड़े हैं. यहां सवाल यह है कि मैं जिसके बारे में लिख रहा हूं क्या उसी जैसा बन सकता हूं. मैं यहां कहना चाहता हूं कि पत्रकारों के बीच भी कुछ ऐसा ही सवाल उठना चाहिए, क्यों लोकतांत्रिक देशों में ही अच्छी पत्रकारिता है. मुख्यधारा के सामाजिक विज्ञान के केंद्र में नागिरक नहीं होता. समाजशास्त्र में नागरिक को 'अन्य' के रूप में दर्शाया जाता है. मैं गांवों के बारे में पढ़ रहा हूं. मैं खुद के बारे में नहीं पढ़ रहा हूं जो एक गांव में रहा हो. दोनों बातों में एक बड़ा अंतर है. इसी तरह अगर मैं एक अनुसूचित जाति के बारे में नहीं बल्कि मैं खुद के बारे में पढ़ रहा हूं, जो एक अनुसूचित जाति से हो सकता है. अगर आप ऐसा बदलाव कर लेते हैं, जो बहुत ही अहम है, तो मैं समझता हूं कि तब एक अच्छे सामाजिक विज्ञान का उभार होता है.     

सभी को इलाज और शिक्षा
यदि मैं गरीब लोगों (यानी केवल गरीब) के स्वास्थ्य या शिक्षा की बात करता हूं तो इसका मतबल है कि मैं इसको लेकर गंभीर नहीं हूं. इसका मतलब है कि मैं मानता हूं कि यह अन्य लोगों के लिए है, लेकिन यदि हमारे पास ऐसी नीति है जो हर किसी को प्रभावित करती है और वह नीति गुणवत्ता वाली हो तो कुल मिलाकर यह एक दूसरे तरह का खेल होगा. क्यों पश्चिमी यूरोप के देश स्वास्थ्य सुविधाओं पर जीडीपी का 7.5 फीसदी खर्च करते हैं जबकि हम केवल एक फीसदी खर्च करते हैं? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वहां ऐसा माना जाता है कि सभी नागरिक बराबर हैं. लेकिन यहां हम क्या कहते हैं- वे गरीब लोग, उन्हें कुछ तो मिल रहा है. हम ऐसा क्यों करते हैं. उदाहरण के लिए दिल्ली में एक सरकारी अस्पताल है सफदरजंग. वहां गांव का वो स्कूल भी है. उन्हें वहीं रहने दें. हम ऐसा ही सोचते हैं. इस तरह अमीर और गरीब या ब्राह्मण और अन्य के बीच का यह भेद चिरस्थायी है, खासकर सामाजिक विज्ञान के सभी क्षेत्र में. यही वह जगह है जहां मैं सोचता हूं कि हम विफल हुए हैं. 

सभी के लिए नीति और केवल गरीब के लिए नहीं 
यदि आपके पास सभी के लिए समान स्वास्थ्य और शिक्षा की योजना है और आप स्टैंडर्ड की बराबरी करने के लिए निजी क्षेत्र से कड़ी मेहनत करने को कहते हैं तो आप गरीब लोगों के लिए काफी कुछ करेंगे. गरीबी की समस्या के समाधान का सबसे बेहतर तरीका है गरीब को भूल कर सोसायटी के बारे में सोचना. जब आप गरीब के लिए शिक्षा या स्वास्थ्य के बारे में सोचते हैं तो आपको खराब स्वास्थ्य और खराब शिक्षा को खत्म करना होगा. वहां हम-आप नहीं जाते क्योंकि हम मानते हैं कि वे हमारे लिए नहीं हैं. हम वे हैं जिन्होंने कागजों पर दस्तखत तो कर दिए लेकिन उनमें हमारी कोई रूचि नहीं है. इस तरह जब तक यह हमारी रूचि नहीं होगी, जब तक यह हमारा काम नहीं बनेगा तब तक बदलाव नहीं होगा. यह कोई असंभव जैसी चीज नहीं है. पश्चिमी यूरोप के अधिकतर देशों ने जब सभी के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा की योजनाओं को लागू किया तो उस वक्त वे गरीब देश थे. नागरिक के रूप में हम कुछ खास नहीं करते. हम मध्यवर्गीय या उच्च मध्यवर्गीय परिवारों के लोग स्थास्थ्य और शिक्षा के मसले पर ड्रॉविंग रूम में होने वाली चर्चा को मुश्किल से कभी बाहर निकालते हैं. और जब आप इन मुद्दों को उठाते हैं तो वे पूछते हैं कि पैसा कहां है? मैं कल उनसे कहूंगा कि यदि पाकिस्तान भारत पर हमला करता है तो क्या भारत कहेगा कि हमारे पर पैसे नहीं हैं, चलो सरेंडर कर देते हैं? आप पैसे की व्यवस्था कर लेंगे. यह एक आपात स्थिति है. पैसे की व्यवस्था की कीजिए.

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