सदन से बाहर रहकर तीसरे मोर्चे की तैयारी में जुटे अखिलेश यादव
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सदन से बाहर रहकर तीसरे मोर्चे की तैयारी में जुटे अखिलेश यादव

18 साल के राजनैतिक कैरियर में पहली बार अखिलेश यादव संसद या विधानमंडल के किसी सदन के सदस्य नहीं रह गए हैं. यह एक स्वैच्छिक फैसला है. जिसके पीछे खुद को राष्‍ट्रीय स्‍तर उस भूमिका के लिए तैयार करने की योजना है, जो कभी मुलायम निभाया करते थे…

अखिलेश यादव खामोशी से हर कदम बढ़ाने की रणनीति पर चल रहे हैं....(फोटो साभार: Facebook)

नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश विधान परिषद में 5 मई को अपना कार्यकाल पूरा होने के साथ ही 18 साल के राजनैतिक कैरियर में अखिलेश यादव पहली बार संसद या विधानमंडल के किसी सदन के सदस्य नहीं रह गए हैं. यह एक स्वैच्छिक फैसला है. वे चाहते तो राज्यसभा या फिर राज्य विधान परिषद के सदस्य बन सकते थे, लेकिन इस समय अखिलेश यादव खुद को पूरी तरह से खाली रखना चाहते हैं, ताकि वे खामोशी से एक ऐसे तीसरे मोर्चे की धुरी बन जाएं. वे अपने पिता मुलायम सिंह की तरह दो कदम आगे और एक कदम पीछे की रणनीति की बजाय, खामोशी से हर कदम बढ़ाने की रणनीति पर चल रहे हैं. उनके छह महीने के ट्रैक रिकॉर्ड पर नजर डालें तो वे काफी हद तक कामयाब भी लगते हैं: 

  1. ममता बनर्जी से लेकर केसीआर तक से की मुलाकात
  2. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से चल रही है मन की बात
  3. सपा परिवार के आपसी मनमुटाव को दूर किया

तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव से मुलाकात 
जब उत्तर प्रदेश में इस बात की चर्चा थी कि कैराना में सपा क्या करेगी तब मई के पहले हफ्ते में अखिलेश खास तौर से तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) से मुलाकात करने हैदराबाद पहुंचे. दोनों नेताओं के बीच साढ़े तीन घंटे मुलाकात चली. केसीआर ने अखिलेश को वंशीबजैया भगवान कृष्ण की मूर्ति भेंट की. दोनों नेताओं ने तीसरे मोर्चे की संभावनाओं पर सकारात्मक विचार दिए. एक दक्षिणी राज्य में जहां सपा का कोई राजनैतिक वजूद नहीं है, वहां विशेष रूप से जाकर, केसीआर से मिलना, बताता है कि अखिलेश कुछ बड़े इरादे रखते हैं.

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ममता बनर्जी, शरद यादव और प्रफुल पटेल से भी मेलजोल 
ऐसा नहीं है कि अखिलेश अचानक केसीआर से मिलने पहुंच गए. पिछले साल दिसंबर में वे कोलकाता जाकर तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से भी मिले थे. उस मुलाकात के बाद दोनों नेताओं ने तीसरे मोर्चे की जरूरत की बात कही थी.  नौ फरवरी को अखिलेश ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी एनसीपी के नेता प्रफुल पटेल की तारीफ की और उनके साथ अपने फोटोग्राफ्स ट्वीट किए. 20 मार्च को अखिलेश ने लखनऊ में शरद यादव से मुलाकात की. शरद यादव भले ही इस समय किसी सदन के सदस्य न हों और न उनकी पार्टी के पास कोई जमीन हो, लेकिन सियासी नेटवर्किंग और गठबंधन निर्माण की विधा के वे इस समय सबसे बड़े महारथी हैं.

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मायावती को मनाकर असाध्य को साधा
बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती के साथ फूलपुर और गोरखपुर लोकसभा चुनाव के लिए गठबंधन कर अखिलेश ने वह समीकरण साधकर दिखा दिया जो 2 जून 1995 गेस्टहाउस कांड के बाद से हमेशा के लिए टूट गया लगता था. भले ही लोकसभा में बसपा का एक भी सदस्य न हो और राज्यसभा में सतीश चंद्र मिश्रा पार्टी के इकलौते सांसद रह गए हों, भले ही बसपा के तकरीबन सारे जाने पहचाने चेहरे पार्टी से बाहर हो गए हों, फिर भी मायावती की ताकत को कोई कम करके नहीं आंक सकता. दोनों उपचुनाव में जीत के बाद जिस तरह मायावती ने काली मर्सिडीज गाड़ी अखिलेश को लेने भेजी और अखिलेश ने जिस तरह मायावती की कोठी पर जाकर उनका आभार जताया, उससे दोनों दलों के दलित और पिछड़े समाज के कार्यकर्ताओं को साफ संदेश मिला है. राज्यसभा चुनाव में बसपा प्रत्याशी भीमराव अंबेडकर की हार के बाद मायावती ने जिस तरह सपा-बसपा की एकजुटता की बात दुहराई, वह अखिलेश की बड़ी सियासी कामयाबी है. अगर यह गठबंधन 2019 के चुनाव में बना रहा तो बीजेपी को यूपी में उतना नुकसान पहुंचा देगा, जितना कांग्रेस पूरे देश में भी शायद ही पहुंचा सके.

लालू संग, यादव-यादव भाई-भाई
राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव और उनके बेटे तेजस्वी से दोनों परिवारों के बीच पारिवारिक रिश्ते तो हैं ही. अखिलेश के भतीजे और मैनपुरी से सांसद तेजप्रताप यादव का लालू की बेटी से विवाह हुआ. रिश्तों की इस तरह की गर्माहट राजनीति के लिए अच्छे शगुन कभी भी पैदा कर सकती है. यह ध्यान रखने वाली बात है कि लालू के बेटे तेजस्वी यादव भले ही अब उप मुख्यमंत्री न हों, लेकिन उनकी पार्टी बिहार विधानसभा में अब भी सबसे बड़ी पार्टी है. सरकार से हटने के बाद तेजस्वी जिस तरह सड़क पर उतरे हैं, उसने उन्हें नेतापुत्र से नेता बनाया है.

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ऐन वक्त पर काम आएगा राहुल से रिश्ता  
इन गैर-कांग्रेस, गैर-बीजेपी दलों से मेल-जोल के साथ ही अखिलेश ने कांग्रेस के साथ एक विशेष रिश्ता कायम कर लिया. यही रिश्ता है जो उन्हें अपने पिता मुलायम सिंह यादव की सियासत से कहीं आगे ले जाता है. अव्वल तो मुलायम सिंह की समाजवादी सियासत शुरू ही कांग्रेस विरोध से हुई थी और बाद में सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर उन्होंने कांग्रेस बैर को और गहरा कर लिया. यही वजह रही कि यूपीए वन और यूपीए टू दोनों में समाजवादी पार्टी भले ही आड़े वक्त पर कांग्रेस के काम आती रही हो, लेकिन उसे सरकार में शामिल होने का मौका नहीं मिला. लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने कांग्रेस से गठबंधन कर पुरानी रार खत्म कर दी. 16 दिसंबर को राहुल गांधी जब कांग्रेस के अध्यक्ष बने तो अखिलेश ने बाकायदा वीडियो मैसेज जारी कर राहुल गांधी को बधाई दी. दोनों नेता लगातार एक दूसरे के सीधे संपर्क में हैं. यह किसी से छुपा नहीं है. रिश्तों की तासीर कुछ इस तरह नजर आ रही है कि अगर कांग्रेस बड़ी शक्ति बनकर उभरी तो अखिलेश उसे तीसरे मोर्चे का सहारा दिला देंगे और अगर तीसरा मोर्चा मजबूत हुआ तो कांग्रेस उसमें अखिलेश का कद बढ़वा देगी.

करीने से संवारा घर
दूसरे राजनैतिक दलों से रिश्तों के साथ ही अखिलेश यादव ने अपने घर को भी करीने से संवारा है. 2017 की पहली तारीख को जब अखिलेश यादव ने पार्टी की कमान वाकई अपने हाथ में ले ली थी, तब यदुवंश छिन्न भिन्न था. कौन किससे कितना नाराज है, इसको नापना कठिन था. लेकिन इस बार जब राज्यसभा चुनाव हुए तो सपा के सबसे पहले वोटर शिवपाल सिंह यादव थे. अपने पिता मुलायम सिंह का जन्मदिन भी अखिलेश ने भव्य तरीके से मनाया. पार्टी में अलग-थलग पड़ गए कुर्मी नेता बेनीप्रसाद वर्मा को उनके घर जाकर अखिलेश ने बधाई दी. अवसर-काज में पार्टी के बड़े नेताओं के यहां जाना अखिलेश ने अपनी आदत सी बना ली है. पार्टी के मुस्लिम चेहरे आजम खान तो शुरू से उनके दाएं हाथ बने हुए हैं ही.

मोदी के करिश्मे की काटना खोजना अब भी बाकी
अखिलेश ने मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद बहुत सधे हुए सियासी कदम रखे हैं और हर जरूरी फैसला लिया है. लेकिन अब तक उनकी कोई गतिविधि दिल्ली में नजर नहीं आई है. तीसरी शक्तियों का कोई ऐसा बड़ा जलसा दिल्ली में नहीं हुआ है, जिसके केंद्र में अखिलेश हों. समाजवादी पार्टी ने लोहिया के बहाने दिल्ली के कंस्टीट्यूशन क्लब में एक कार्यक्रम जरूर किया था, लेकिन उसमें से पार्टी के सांसद ही गायब रहे. अखिलेश दिल्ली कब आते हैं और कब चले  जाते हैं यह भी ज्यादा किसी को पता नहीं चलता. हो सकता है यह उनकी ठंडा करके खाने की रणनीति का हिस्सा हो, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे से अगर अखिलेश को टकराना है तो एक दिया दिल्ली में जलाना ही होगा.   

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