कैसे बने मुलायम मौलाना
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कैसे बने मुलायम मौलाना

सामाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव अब इस दुनिया में नहीं रहे. गुज़िश्ता रोज़ उनकी आखिरी रसूमात अदा की गईं. उनके देहांत के बाद से ही लोग उनकी जिंदगी के अहम पहलुओं को याद करने लगे. इसी कड़ी में हम आपको मुलायम सिंह यादव के मौलाना बनने की कहानी बताने जा रहे हैं. 

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मुलायाम सिंह यादव को हिंदुस्तान के पिछड़ों और अक़लियतों के मसीहा के तौर पर ही याद किया जाएगा. उनकी सारी सियासी जद्दोजेहद पिछड़ों और मुसलमानों के वोटबैंटक को जोड़कर रखने की ही रही. जिसमें वो कामयाब भी हुए. 1990 में बाबरी मस्जिद की तरफ़ बढ़ रहे कारसेवकों के हुजूम पर उन्होंने लाठीचार्ज और स्टेट फ़ायरिंग का हुक्म दिया तो उनके मुख़ालेफ़ीन ने उन्हें मुल्ला मुलायम या फिर मौलाना मुलायम के नाम से पुकारना शुरु कर दिया. राममंदिर आंदोलन के बाद 1993 में जब यूपी असेंबली का चुनाव हुआ तो सपा-बसपा इत्तेहाद का एक नारा गूंजा 'मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जयश्री राम'. इस नारे ने भी मुलायम और मुसलमानों को क़रीब किया. 

मुलायम में मुसलमानों को अपना रहनुमा नज़र आता रहा. मुसलमानों के जलसों और इफ़्तार पार्टियों में मुलायम टोपी लगाए बड़े उलेमा के बीच ऐसे घिरे रहते थे कि फ़र्क़ कर पाना मुशकिल हो जाता था. दरअसल 90 के दशक में मुलायम सिंह जानते थे कि कांग्रेस और तेज़ी से बढ़ती बीजेपी में अपर कास्ट की बालादस्ती है और बैकवर्ड क्लास हाथिए पर है. लिहाज़ा सियासत की इस उलझी हुई गुत्थी को सुलझाने की तरकीब मुस्लिम-बैकवर्ड के गठजोड़ से ही सुलझेगी. मुलायम सियासत की इस रस्सी को मज़बूती से थामे रहे. और वक़्त वक़्त पर इसी रस्सी के डोरे इन दोनो तबक़ों पर डालते रहे जिसके नतीजे में उनकी झोली में भर भर कर वोट गिरे और वो इस सियासत के सिकंदर साबित हुए. हालांकि यादवों के अलावा दूसरी पिछड़ी ज़ातियों को वो अपने पाले में लाने में नाकाम ही रहे.

1989 में जब मरकज़ में वीपी सिंह की सरकार बनीं तो मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों पर अमल करते हुए पिछड़ों को तालीमी इदारों और सरकारी नौकरियों में 27 फ़ीसद आरक्षण दिया गया. फ़ैसला तो वीपी सिंह का था लेकिन माना जाता है कि इस फ़ैसले के पीछे लालू-मुलायम का दिमाग़ था. मंडल की सियासत के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार की सियासत में कांग्रेस हाशिए पर चली गई और इसका सीधा फ़ायदा ओबीसी-अक़लियत के रहनुामओं को मिला. 1996 में लालू और शरद यादव ऐन वक़्त पर अगर न मुकरते तो इसी रथ पर सवार मुलायम सिंह यादव मुल्क की वज़ारते उज़्मा यानी वज़ीरे आज़म ओहदे की बागडोर संभालते.

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पिछले तीन दहाईयों में मुलायम सिंह यादव ने पिछड़ों और मुसलमानों को सियासी तौर पर इतना मज़बूत किया जिसके बारे में वो सोच भी नहीं सकते थे. लेकिन उनके मुख़ालिफ़ीन कहते हैं कि मुलायम सिंह ने मुसलमानों के लिए कुछ ख़ास नहीं किया. पिछड़ों को तो रिज़र्वेशन दिलाने में अहम किरदार अदा किया लेकिन मुसलमानों के रिज़र्वेशन का वो वादा और नारा ही लगाते रहे. लोग कहते हैं कि वो बाबरी मस्जिद को ढाल बना कर मुसलमानों को बीजेपी का ख़ौफ़ दिखाते रहे और ख़ुद को मसीहा बताते रहे. एंटी बीजेपी पिलर पर खड़ी समाजवादी पार्टी 2013 में अपनी ही सरकार में मुज़फ़्फ़रनगर का दंगा नहीं रोक पायी. तो वहीं कांग्रेस के ख़िलाफ़ समाजवाद के नज़रिए का शिराज़ा भी उस वक़्त बिखर गया जब  2017 में यूपी में कांग्रेस -सपा का इत्तेहाद हुआ, मुलायम इस इत्तेहाद को नहीं रोक पाए. 

राम मंदिर आंदोलन के बाद आज़म ख़ान की जज़्बाती तक़रीरों से मुसलमानों को होशियार करने वाले मुलायम आज़म को पार्टी छोड़ने से नहीं रोक सके. जब दोबारा आज़म ख़ान की वापसी हुई और अमर सिंह से इख़्तेलाफ़ बढ़ा तो समाजवादी पार्टी को नमाज़वादी पार्टी कहे जाने का ताना भी मन से मुलायम इरादों को झेलना पड़ा. अपने सियासी दांव से अपने मुख़ालिफ़ीन को चारोख़ाने चित करने का हुनर रखने वाले मुलायम अपने कुनबे के बिखरते रिश्तों को नहीं समेट पाए. जीते जी अपनी आंखों के सामने भाई और बेटे के इख़्तेलाफ़ का तमाशा सड़कों पर देखा. राजधर्म निभाने में माहिर मुलायम रिश्तों के फ़र्ज़ को अदा करने से चूक गए. इसे बढ़ती उम्र का तक़ाज़ा कहिए या हालात की ज़रुरत पब्लिक मंच पर अपने ही बेटे पर बाप से बैर का इल्ज़ाम लगाया तो वहीं शिवपाल को नई पार्टी बनाने से नहीं रोक पाए. 1967 में पहली बार विधायक बने मुलायम सिंह यादव यूपी के तीन बार वज़ीरे आला बने मुल्क के वज़ीरे दिफ़ा भी रहे, 7 बार के लोकसभा एमपी और 9 बार एमएलए चुने गए. मुलायम सिंह यादव जेपी और लोहिया के बाद समाजवाद के सबसे बड़े लीडर के तौर पर याद किए जाएंगे.

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