मृत्युभोज या तेरहवीं एक आदर्श हिन्दू परंपरागत प्रथा है, जिसमें व्यक्ति की मौत के बाद 13वें दिन एक विशेष समारोह का आयोजन किया जाता है.
इस प्रथा का मुख्य उद्देश्य मृतक की आत्मा को शांति प्रदान करना है. विश्वास है कि मृत्यु के बाद आत्मा आकाश में अस्तित्व में रहती है और तेरहवीं के दिन उसे शांति मिलती है.
यह प्रथा शोकाकुल परिजनों के लिए एक प्रतीक होती है, जो व्यक्ति की मौत के बाद उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं और उनके शोक को समर्थन देते हैं.
यह प्रथा हिन्दू धर्म में मृत्यु और पुनर्जन्म के धार्मिक विश्वास पर आधारित है.
मृत्युभोज में अक्सर कोई पंडित या पुरोहित आमंत्रित किए जाते हैं, जिनका काम मन्त्रों और पूजा के माध्यम से मृतक की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करना होता है.
तेरहवीं में एक प्रशास्तांकित समारोह आयोजित किया जाता है, जिसमें शोकाकुल परिवार के सदस्य और आपसी जानकार के लिए आए हुए लोग भाग लेते हैं.
तेरहवीं में शोक की आधिकारिक अवधि 13 दिन तक होती है, जिनमें परिवार और दोस्त शोक और विशेष रूप से भोजन के माध्यम से अपने दुख को व्यक्त करते हैं.
मृत्युभोज के माध्यम से समाज में एकता और समर्थन की भावना पैदा होती है. क्योंकि इस समय पर परिवार और दोस्त एक-दूसरे के साथ होते हैं और उनके दुख साझा किए जाते हैं.
तेरहवीं में धन्यवादी यात्रियों को भोजन और दान किया जाता है. जिससे समाज में दान और चैरिटी की भावना भी बढ़ती है.
मृत्युभोज एक सांस्कृतिक महत्वपूर्णता रखने वाली प्रथा है जो हिन्दू समाज में पीढ़ियों से पीढ़ियों तक पास की जाती है और उसके सांस्कृतिक अर्थ को साकारता देती है.