विश्व प्रसिद्ध 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक यूपी की पवित्र नगरी वाराणसी में है. वाराणसी को काशी भी कहते हैं और जहां ये ज्योतिर्लिंग स्थित है उस स्थान को बाबा विश्वनाथ का धाम कहते हैं.
ये मंदिर पिछले हजारों सालों से गंगा नदी के पश्चिमी तट पर है. मंदिर के मुख्य देवता को श्री विश्वनाथ और विश्वेश्वर के नाम से जाना जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ब्रह्मांड के भगवान.
वाराणसी में गंगा नदी के पश्चिम घाट पर सातवें ज्योतिर्लिंग काशी विश्वनाथ का मंदिर है. मान्यता है कि भोले नाथ की प्रिय नगरी काशी भगवान शिव के त्रिशूल पर टिकी हुई है.
मान्यता है कि भगवान शिव के इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन मात्र से ही पाप मिट जाते हैं. मंदिर को हिंदू शास्त्रों में शैव संस्कृति में पूजा का एक केंद्रीय हिस्सा माना जाता है.
इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ, गोस्वामी तुलसीदास का आए थे. यहीं पर सन्त एकनाथजी ने श्रीएकनाथी भागवत लिखकर पूरा किया.
विश्वनाथ मंदिर को इतिहास में कई मुस्लिम शासकों ने बार बार तोड़ा. वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्या बाई होल्कर ने सन् 1780 में करवाया था.
बाद में महाराजा रणजीत सिंह ने इस मंदिर को 1835 में 1000 कि.ग्रा. शुद्ध सोने से बनवाया था. कहा जाता है कि ये मंदिर महादेव और माता पार्वती का आदि स्थान है.
जब देवी पार्वती अपने पिता के घर थीं जहां उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था. देवी पार्वती ने एक दिन भगवान शिव से उन्हें अपने घर ले जाने के लिए कहा.
भगवान शिव देवी पार्वती की बात मानकर उन्हें काशी लेकर आए और यहां विश्वनाथ-ज्योतिर्लिंग के रूप में खुद को स्थापित कर लिया. इसका जीर्णोद्धार 11 वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने करवाया.
हिन्दू धर्म में कहते हैं कि प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता. उस समय महादेव इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं.
आदि सृष्टि स्थली भी यहीं भूमि बतलायी जाती है. इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने की कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था.
फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होने सारे संसार की रचना की. अगस्त्य मुनि ने भी विश्वेश्वर की बड़ी आराधना की थी.
पौराणिक मान्यता है कि विश्वनाथ-ज्योतिर्लिंग की अर्चना से श्रीवशिष्ठजी तीनों लोकों में पुजित हुए और राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाये.
1194 में मुहम्मद गौरी ने ही इसे तुड़वा दिया था. जिसे एक बार फिर बनाया गया, लेकिन 1447 में दोबारा इसे जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने तुड़वा दिया.
सावन में काशी विश्वनाथ को भोलेबाबा के भक्त छू नहीं पाएंगे. दरअसल, मंदिर प्रशासन ने श्रद्धालुओं की भारी भीड़ को देखते हुए ये फैसला लिया है.
यहां दी गई जानकारियां लोक मान्यताओं पर आधारित हैं. इसका कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है. Zeeupuk इसकी किसी तरह की कोई पुष्टि नहीं करता है.