फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई। कहने की नौबत ही न आई हम भी किसी के हो लें।
एक मुद्दत से तेरी याद भी आई न हमें। और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं।।
हम से क्या हो सका मोहब्बत में। खैर तुम ने तो बेवफ़ाई की।।
गरज़ के काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त। वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में।।
अब तो उन की याद भी आती नहीं। कितनी तन्हा हो गईं हैं मेरी तन्हाइयां।।
बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मालूम। जो तेरे हिज्र में गुज़री वो रात रात हुई।।
इक उम्र कट गई है तेरे इंतजार में। ऐसे भी हैं कि कट न सकी जिन से एक रात।।
किसी का यूं तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी। ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोखा है सब मगर फिर भी।।
मैं मुद्दतों जिया हूं किसी अपनों के बग़ैर।। अब तुम भी साथ छोड़ने को कह रहे हो खैर।
तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में। हम ऐसे में तेरी यादों की चादर को तान लेते हैं।।