Urdu Poetry in Hindi: "अब जिस तरफ़ से चाहे गुजर जाए कारवां, वीरानियां तो..."

Siraj Mahi
Nov 24, 2024

रोज़ बस्ते हैं कई शहर नए, रोज़ धरती में समा जाते हैं

रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे, फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ

बेलचे लाओ खोलो ज़मीं की तहें, मैं कहाँ दफ़्न हूँ कुछ पता तो चले

बहार आए तो मेरा सलाम कह देना, मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने

इतना तो ज़िंदगी में किसी के ख़लल पड़े, हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े

गर डूबना ही अपना मुक़द्दर है तो सुनो, डूबेंगे हम ज़रूर मगर नाख़ुदा के साथ

अब जिस तरफ़ से चाहे गुज़र जाए कारवां, वीरानियाँ तो सब मिरे दिल में उतर गईं

पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था, जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा

कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले, उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है

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