Urdu Poetry in Hindi "...कोई नहीं जहाँ में कोई नहीं किसी का"

मैं रोज़ इधर से गुज़रता हूँ कौन देखता है, मैं जब इधर से न गुज़रूँगा कौन देखेगा

इस जलती धूप में ये घने साया-दार पेड़, मैं अपनी ज़िंदगी उन्हें दे दूँ जो बन पड़े

क्या रूप दोस्ती का क्या रंग दुश्मनी का, कोई नहीं जहाँ में कोई नहीं किसी का

मेरी मानिंद ख़ुद-निगर तन्हा, ये सुराही में फूल नर्गिस का

बड़े सलीक़े से दुनिया ने मेरे दिल को दिए, वो घाव जिन में था सच्चाइयों का चरका भी

ज़िंदगी की राहतें मिलती नहीं मिलती नहीं, ज़िंदगी का ज़हर पी कर जुस्तुजू में घुमिए

तिरे ख़याल के पहलू से उठ के जब देखा, महक रहा था ज़माने में चार-सू तिरा ग़म

मैं एक पल के रंज-ए-फ़रावाँ में खो गया, मुरझा गए ज़माने मिरे इंतिज़ार में

सलाम उन पे तह-ए-तेग़ भी जिन्हों ने कहा, जो तेरा हुक्म जो तेरी रज़ा जो तू चाहे

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