"निकल के हम तिरी महफिल से राह भूल गए", पढ़ें मजरूह सुल्तानपुरी के शेर

Siraj Mahi
Sep 02, 2024

गुलों से भी न हुआ जो मिरा पता देते, सबा उड़ाती फिरी ख़ाक आशियाने की

कोई हम-दम न रहा कोई सहारा न रहा, हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा

बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए, हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते

बढ़ाई मय जो मोहब्बत से आज साक़ी ने, ये काँपे हाथ कि साग़र भी हम उठा न सके

'मजरूह' क़ाफ़िले की मिरे दास्ताँ ये है, रहबर ने मिल के लूट लिया राहज़न के साथ

ज़बाँ हमारी न समझा यहाँ कोई 'मजरूह', हम अजनबी की तरह अपने ही वतन में रहे

तिरे सिवा भी कहीं थी पनाह भूल गए, निकल के हम तिरी महफ़िल से राह भूल गए

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया

अब कारगह-ए-दहर में लगता है बहुत दिल, ऐ दोस्त कहीं ये भी तिरा ग़म तो नहीं है

VIEW ALL

Read Next Story