Mirza Ghalib Poetry: "मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था..."

हम वहां हैं जहां से हम को भी, कुछ हमारी ख़बर नहीं आती

कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग, हम को जीने की भी उम्मीद नहीं

तुम सलामत रहो हज़ार बरस, हर बरस के हों दिन पचास हज़ार

मैं भी मुंह में ज़बान रखता हूं, काश पूछो कि मुद्दआ क्या है

मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था, दिल भी या-रब कई दिए होते

हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद, जो नहीं जानते वफ़ा क्या है

बक रहा हूं जुनूं में क्या क्या कुछ, कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूं, वर्ना क्या बात कर नहीं आती

मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब', मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है

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