नीतीश ने फिर ख़ुद को साबित किया बिहार की राजनीति का 'चाणक्य', राजनीतिक दांवपेंच से दोस्तों-दुश्मनों को डाला सकते में
Advertisement
trendingNow0/india/bihar-jharkhand/bihar334530

नीतीश ने फिर ख़ुद को साबित किया बिहार की राजनीति का 'चाणक्य', राजनीतिक दांवपेंच से दोस्तों-दुश्मनों को डाला सकते में

नीतीश ने मई 2014 में लोकसभा चुनाव में जदयू की करारी हार के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था और जून 2013 में भाजपा से नाता तोड़ने की बात कहकर देश को अचंभित कर दिया था.

27 जुलाई को नीतीश कुमार ने छठी बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. (फाइल फोटो)

नई दिल्ली: जदयू नेता नीतीश कुमार ने महागठबंधन के अपने साथी राजद को धता बताते हुए और उसके साथ गठबंधन तोड़कर चार साल बाद भाजपा से फिर हाथ मिला लिया और इस तरह वह छठी बार बिहार के मुख्यमंत्री बन गए हैं. बिहार की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले 66 वर्षीय कुमार ने राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री पद से बुधवार (26 जुलाई) को शाम को इस्तीफा दे दिया था तथा सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा का समर्थन स्वीकार कर लिया था. इस कदम का 2019 के लोकसभा चुनाव पर गहरा असर पड़ सकता है क्योंकि भाजपा को रोकने के लिए विपक्ष के बीच हुई एकजुटता को इससे धक्का लगा है.

सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में मात खाने के बाद कुमार ने ‘महागठबंधन’ का नेतृत्व करते हुए विधानसभा चुनाव में शानदार जीत दर्ज की थी. महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस भी शामिल थी. पहली बार 24 नवंबर 2005 को राज्य के मुख्यमंत्री का पद संभालने वाले नीतीश ने 20 नवंबर 2015 को पांचवीं बार इस पद की शपथ ली थी, लेकिन राजद प्रमुख लालू प्रसाद के परिजन के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद यह असहज गठबंधन महज दो साल ही चल पाया.

शांत, शालीन और कर्मठ स्वभाव के माने जाने वाले कुमार अपनी पसंद और नापसंद को मजबूती से रखने के लिए पहचाने जाते हैं तथा कभी भी अपनी इस खासियत को नहीं भूलते जिसके चलते लालू प्रसाद उनके लिए कहते हैं कि उनके दांत मुंह में नहीं बल्कि आंत में हैं. 2014 लोकसभा चुनाव में भाजपा के रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर के सहयोग से उन्होंने बिहार में 2015 का विधानसभा चुनाव लड़ा. उन्होंने विधानसभा चुनाव को बिहार की ‘अस्मिता’ के तौर पर लड़ा और उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जिक्र करते हुए खुद को अकेला ऐसा बिहारी बताया था जो ‘बहारी’ के खिलाफ लड़ रहा है.

बिहार में भाजपा के सबसे बड़े नेता और कभी कुमार की सरकार में उप मुख्यमंत्री रहे उनके दोस्त सुशील कुमार मोदी उन्हें दूरदृष्टा बताते हैं जिन्होंने बिहार का कायापलट कर दिया. नीतीश ने मई 2014 में लोकसभा चुनाव में जदयू की करारी हार के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था और जून 2013 में भाजपा से नाता तोड़ने की बात कहकर देश को अचंभित कर दिया था. उन्होंने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था और फिर फरवरी 2015 में चौथी बार सत्ता में लौटने के लिए मांझी को पद से हटा दिया था. कुमार को ‘सुशासन बाबू’ और ‘विकास पुरुष’ भी बुलाया जाता है. यहां तक कि आलोचक भी उन्हें बिहार का कायापलट करने का श्रेय देते हैं.

इस पुरानी कहावत को चरितार्थ करते हुए कि दुश्मन का दुश्मन भी दोस्त होता है, जदयू ने 2015 के विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी का विजय रथ रोकने के लिए लालू से हाथ मिला लिया था. समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के छात्र आंदोलन से निकले लालू और नीतीश कुछ समय बाद राज्य की राजनीति में दोस्त से दुश्मन बन गए, लेकिन अपने मतभेदों को भुलाकर 40 साल बाद दोनों फिर साथ आ गए.

हालांकि चुनावी मैदान में पहले मुकाबले में लालू खुशकिस्मत रहे. उन्होंने 1977 में लोकसभा चुनाव जीतकर एनआईटी पटना से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग पढ)कर आए कुमार से बढ़त हासिल कर ली. कुमार को दो बार हार के बाद 1985 में राज्य विधानसभा चुनाव में पहली बार जीत मिली. बाढ़ से 1989 का लोकसभा चुनाव जीतने वाले कुमार ने अपना ध्यान दिल्ली पर लगा दिया और 1991, 1996, 1998 तथा 1999 में वह निचले सदन में चुनकर आए. वह अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में कृषि राज्यमंत्री बने तथा फिर 1999 में कुछ समय के लिए रेल मंत्री बने. उन्होंने 1999 में पश्चिम बंगाल के गैसल में रेल हादसे के बाद इस्तीफा दे दिया जिसमें करीब 300 लोग मारे गए थे.

कुमार 2001 में दोबारा रेल मंत्री बने और 2004 तक पद पर बने रहे. रेल भवन में उनके कार्यकाल के दौरान ही फरवरी 2002 में गोधरा ट्रेन अग्निकांड हुआ जिसके बाद गुजरात में सांप्रदायिक दंगे भड़के. जदयू के कद्दावर नेता ने ओबीसी, ईबीसी, महादलितों और अल्पसंख्यकों का एक गठबंधन बनाया जिससे उन्हें नवंबर 2005 के चुनाव में बिहार में सफलता हाथ लगी और उन्होंने लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन को खत्म किया. विपक्ष से अलग राह पकड़ते हुए उन्होंने भाजपा के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार और बिहार के पूर्व राज्यपाल आर एन कोविंद तथा मोदी सरकार के नोटबंदी के कदम का समर्थन किया था जिसके बाद यह अटकलें लगाई जा रही थी कि वह भगवा दल के साथ फिर से नजदीकियां बढ़ा रहे हैं.