रानी लक्ष्मीबाई: 1857 की वो वीरांगना जिन्होंने अंग्रेजों को चटाई थी धूल, शव को भी नहीं छू पाए अंग्रेज
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रानी लक्ष्मीबाई: 1857 की वो वीरांगना जिन्होंने अंग्रेजों को चटाई थी धूल, शव को भी नहीं छू पाए अंग्रेज

देश आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है. इस मौके पर हमें अपने उन वीर-वीरांगनाओं को भी याद कर रहे हैं, जिन्होंने देश की आजादी के खातिर अपना सबकुछ देश पर कुर्बान कर दिया. आजादी की ऐसी ही वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई थी, जिन्होंने अंग्रेजों को धूल चटा दी थी. अंग्रेज जीते जी उनसे कभी नहीं जीत पाए जबकि शहीद होने के बाद भी अंग्रेजों को उनका शव तक देखने को नहीं मिला था. 

रानी लक्ष्मीबाई: 1857 की वो वीरांगना जिन्होंने अंग्रेजों को चटाई थी धूल, शव को भी नहीं छू पाए अंग्रेज

ग्वालियर। 'बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी' कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता की ये लाइनें सुनते ही देश के हर आदमी की जहन में वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की यादें ताजा हो जाती है. क्योंकि रानी लक्ष्मीबाई के बिना आजादी का आंदोलन अधूरा ही माना जाएगा. क्योंकि देश को आजादी 1947 में मिली, लेकिन 1857 की क्रांति में देश को अंग्रेजी शासन से मुक्त कराने का बिगुल बजा दिया गया था, जिसमें झांसी की रानी रानी लक्ष्मीबाई का बड़ा योगदान था. जो देश के खातिर अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते शहीद हो गईं थीं. जिनके शौर्य की गाधाएं पूरा देश गाता है. आज हम आपको वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के बारे में बताएंगे. 

वाराणसी में हुआ था रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1835 को वाराणसी के एक पुरोहित के घर में हुआ था. उनके पिता का नाम बलवंत राव था. जबकि माता का नाम भागीरथी बाई था. जन्म के बाद रानी लक्ष्मीबाई का नाम मणिकर्णिका रखा गया था, जबकि प्यार से सब उन्हें मनू कहकर बुलाते थे, वह बचपन से ही बहुत बहादुर थी. मराठा ब्राह्मण से आने वाली मणिकर्णिका बचपन से ही शास्त्रों और शस्त ज्ञान की धनी थीं. इनके पिता मोरोपंत मराठा बाजीराव (द्वितीय) की सेवा करते थे और मां भागीरथीबाई बहुत बुद्धीमान और संस्कृत को जानने वाली थी. लेकिन मणिकर्णिका के जन्म के बाद 4 साल ही उन्हें मां का प्यार नहीं मिल पाया, 1832 में उनकी मृत्यु हो गई.

1850 में झांसी के राजा से हुआ था विवाह 
रानी लक्ष्मीबाई बचपन से ही साहसी और निडर स्वभाव की थी और उन्हें शास्त्र और शस्त्र दोनों का ज्ञान था. सन 1850 में उनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव नेवलकर से हुआ था. जहां विवाह के बाद वे से ही वे झांसी की महारानी बन गई और उन्हें लक्ष्मी बाई के नाम से पहचाने जाने लगा. 1851 में उनको पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई. लेकिन पुत्र के जन्म के 4 माह बाद ही उनके बेटे का निधन हो गया, इससे सारी झांसी शोक में डूब गई. हालांकि उन्होंने एक दत्तक पुत्र को गोद ले लिया. जिसका नाम दामोदर राव रखा गया. लेकिन अपने बेटे की मौत से आहत राजा गंगाधर राव बीमार रहने लगे और 21 नवंबर 1853 को उनका निधन हो गया. जिससे पूरे राज्य की बागडोर रानी लक्ष्मीबाई के हाथ में आ गई. 

अंग्रेजों ने झांसी साम्राज्य को हड़पना चाहा
राजा गंगाधर राव की मौत के बाद अंग्रेजों ने सोचा की अब झांसी में राजा नहीं है ऐसे में झांसी को वह अपने ब्रिटिश शासन के तहत लाना चाहते थे. अंग्रेजों ने दामोदर राव को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी लक्ष्मीबाई को झांसी का किला खाली करने के लिए कहा. जैसे ही रानी को यह हुक्म सुनाया गया तो उन्होंने अंग्रेजों का ललकारते हुए उनका फरमान को मानने से इनकार कर दिया. रानी ने अंग्रजों के खिलाफ बगावत कर दी.  

"मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी"
रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से कहा कि वह मरते दम तक अपनी झांसी किसी को नहीं देगी. रानी का फरमान सुनने के बाद अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण कर दिया. लेकिन अंग्रेजों के मंसूबों पर रानी ने पानी फेर दिया और झांसी पर हुए आक्रमण का मुंहतोड़ जवाब दिया. हालांकि अंग्रेजों के सामने रानी की सेना बहुत छोटी थी, ऐसे सन् 1857 तक झांसी दुश्मनों से घिर चुकी थी लेकिन रानी ने झांसी को बचाने का जिम्मा लिया था. उन्होंने अपनी महिला सेना तैयार की और इसका नाम दिया 'दुर्गा दल'. इस दुर्गा दल का प्रमुख उन्होंने अपनी हमशक्ल झलकारी बाई को बनाया.  वो लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं इस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थी. रानी ने कई बार अंग्रेजों को धूल चटाई. 

ग्वालियर के किले पर किया कब्जा 
हालांकि 1858 में युद्ध के दौरान अंग्रेज़ी सेना ने पूरी झांसी को घेर लिया और पूरे राज्य पर कब्जा जमा लिया, लेकिन रानी लक्ष्मीबाई भागने में सफल रहीं और वहां से निकलर वह तात्या टोपे से मिली. जहां रानी लक्ष्मीबाई ने तात्या टोपे के साथ मिलकर ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया. 

आखिरी दम तक लड़ी थी रानी लक्ष्मीबाई 
18 जून 1858 को जब झांसी की रानी दतिया और ग्वालियर फतह करते-करते सिंधिया किले पर मदद के लिए पहुंची और वहां से खाली हाथ लौटने लगी, तभी अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया और अपनी तलवार से गोरों की गर्दन कलम करते हुए उन्होंने घोड़े को किले से नीचे उतार दिया, उसी समय एक अंग्रेज सैनिक ने उनपर भाले से हमला कर दिया, जिससे वो बुरी तरह घायल हो गईं और उनका घोड़ा भी घायल हो गयी, यह पूरा मामला उस वक्त जब गंगादास की कुटिया में रहने वाले साधुओं को पता लगा, तो वे रानी को उठाकर कुटिया में ले आए. हालांकि वह बुरी तरह से घायल हो गई थी ऐसे में उन्होंने संत गंगा दास की कुटिया में अपने प्राण त्याग दिए.

अंग्रेज रानी को छू भी नहीं पाए 
गंगादास की कुटिया में रहने वाले साधुओं ने रानी को कुटिया में लाकर उनका इलाज करना शुरू किया, लेकिन रानी को आभास हो गया था की, अब शायद वो बच नहीं पाएंगी, इसीलिए उन्होंने साधु गंगादास से कहा कि, बाबा मेरे शरीर को गोरे अंग्रेजों को नहीं छूने देना. बस इतना कहते ही रानी लक्ष्मीबाई ने प्राण त्याग दिए. तभी अंग्रेजों ने कुटिया पर हमला बोल दिया. लेकिन रानी की आखिरी इच्छा के लिए साधु भी युद्ध में उतर गए और रानी के शव की रक्षा करते हुए 745 नागा साधु शहीद हो गए. जब बाबा गंगा दास को लगा की, अब निहत्थे साधुआ के दम पर अंग्रेजों से रानी के शव को बचाया नहीं जा सकता, तो उन्होंने रानी की इस अंतिम इच्छा को पूरा करने के लिए घास फूस की बनी कुटिया में ही उनका संस्कार कर दिया, लेकिन मरते दम तक उनका शव भी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगने दिया और रानी की आखिरी इच्छा को पूरा किया. 

सिंधिया परिवार से जुड़ा रहा है विवाद 
ऐसी किवदंतियां हैं कि सिंधिया परिवार ने 1857 की क्रांति के दौरान रानी लक्ष्मीबाई का साथ नहीं दिया था, जिसके चलते उनकी शहादत हुई थी. कहा जाता है कि जब रानी ने उनसे मदद मांगी थी तो मदद नहीं मिली थी. जिससे सिंधिया परिवार पर तब से ही कई आरोप लगते हैं. कहा जाता था ग्वालियर में बने रानी लक्ष्मीबाई के समाधि स्थल पर सिंधिया परिवार का कोई सदस्य नहीं जाता था. लेकिन सिंधिया परिवार के वंशज और वर्तमान केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इस नियम को बदल दिया था उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई के समाधि स्थल पर पहुंचकर नमन किया था. 

ग्वालियर में बना है समाधि स्थल 
आज भी मध्य प्रदेश के ग्वालियर में बाबा गंगादास की कुटिया अब रानी लक्ष्मीबाई के समाधि स्थल के रूप में जानी जाती है, हर साल यहां बलिदान दिवस के मौके पर 2 दिन का कार्यक्रम चलता है, जिसमे देशभर से आए कलाकार हिस्सा लेते हैं. दो दिनों तक चलने वाले इस कर्यक्रम में रानी लक्ष्मीबाई के अलावा 1857- 58 की क्रांति और उसमें शहीद हुए लोगों की प्रदर्शनियां लगाई जाती है जहां आज भी भारत की वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई को याद करते हैं. 

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