कैराना में एक तरफ भाजपा की उम्मीदवार मृगांका सिंह थीं, दूसरी तरफ पूरे विपक्ष ने राष्ट्रीय लोकदल की तबस्सुम हसन पर दांव लगाया था. ये पहले से तय था कि हुकुम सिंह के निधन से खाली हुई सीट भाजपा के लिए इस बार आसान नहीं होगी.
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नई दिल्ली : चार लोकसभा सीटों के लिए हुए उपचुनावों में भले भाजपा और उसके सहयोगी दल ने दो सीटें अपने नाम कर ली हों, लेकिन यूपी के कैराना में मिली हार उसके लिए किसी गहरे जख्म से कम नहीं है. ये सीट भाजपा के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न थी. इसलिए सभी की नजरें बाकी सभी जगह की मुकाबले कैराना पर ज्यादा थीं. यहां एक तरफ भाजपा की उम्मीदवार मृगांका सिंह थीं, दूसरी तरफ पूरे विपक्ष ने राष्ट्रीय लोकदल की तबस्सुम हसन पर दांव लगाया था. ये पहले से तय था कि हुकुम सिंह के निधन से खाली हुई कैराना सीट भाजपा के लिए इस बार आसान नहीं होगी. हुआ भी वही, यहां से विपक्ष की उम्मीदवार तबस्सुम हसन को जीत मिली.
इस जीत ने विपक्ष को एक बार फिर से भाजपा के खिलाफ लामबंद होने का बड़ा कारण दे दिया है. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहां जातियों का गठजोड़ बहुत अहम होता है, वहां आने वाले चुनाव भाजपा के लिए आसान नहीं होने वाले. कैराना में विपक्ष ने जातियों के गठजोड़ को बहुत आसानी से अपनी ओर कर लिया. वहीं भाजपा सत्ता में होने के बावजूद इस मैनेजमेंट में फेल हो गई. इस चुनाव में तीन जातियां सबसे अहम थीं. जाट, मुस्लिम और दलित. विपक्ष ने सधी रणनीति के दम पर इन्हें साध लिया.
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विपक्ष ने ऐसे साधा जाटोंं, मुस्लिमों और दलितों को
1. कैराना में जाट और मुस्लिम समुदाय हमेशा से राष्ट्रीय लोकदल के साथ रहे. लेकिन पिछले चुनावों में जाट छिटककर भाजपा के साथ हो गए. मुस्लिम वोटर भले भाजपा के साथ न हों लेकिन जाट और दूसरी जातियों के वोट पाकर भाजपा यहां जीत गई. इस चुनावों में अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी जाटों को फिर से अपनी ओर करने में कामयाब रहे. यही कारण रहा कि जाट बहुल गांवों के साथ दंगा प्रभावित गांवों में भी जाट वोटर भाजपा के मुकाबले रालोद के साथ खड़े नजर आए.
2. चौधरी अजित सिंह और उनके बेटे जयंत का गांव-गांव और घर घर जाना भी टर्निंग प्वाइंट रहा. उन्होंने अपने सीधे संपर्क से एक बार फिर से लोगों को अपने पाले में करने कामयाबी पाई. इसके अलावा उन्होंने गन्ने के मुद्दे को छुआ, जो पहले ही यहां बड़ा मुद्दा बना हुआ था. यहां तक कि यहां पर मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान तबस्सुम हसन के बेटे नाहिद हसन के बयानों को भी भाजपा ने याद दिलाया, लेकिन वह दांव भी काम नहीं किया.
3. आमतौर पर दलित भी भाजपा को कम वोट देते हैं, लेकिन 2014 के चुनावों में भाजपा ने दलित वोटों का बड़ा हिस्सा अपने पाले में किया था. लेकिन इन चुनावों में दलितों की नाराजगी भी उसे उठानी पड़ी. सहारनपुर के शब्बीरपुर कांड और 2 अप्रैल को आरक्षण आंदोलन में दलितों के खिलाफ दर्ज मुकद्मों से भी इस वर्ग में रोष था. बसपा के उम्मीदवार के न होने से दलित वोट तबस्सुम हसन के खाते में गए.