देश में पाकिस्तानी आतंकवाद और सीमा पर सीज़फायर उल्लंघन कोई नया मुद्दा नहीं है। चाहे मुंबई का 26/11 का आतंकी हमला हो या फिर 2006 के मुंबई सीरियल धमाके, 2008 में पुणे का जर्मन बेकरी कांड हो या उसी साल 30 अक्टूबर को असम में हुए धमाके या फिर हाल का पठानकोट हमला, ऐसे आतंकी कारनामों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। लेकिन पठानकोट हमले ने सुरक्षा तंत्र के कई ऐसे पहलुओं को उजागर किया है जो किसी भी भारतीय का मनोबल गिराने के लिये पर्याप्त हैं। कहीं सरकारों और सुरक्षा एजेंसियों के बीच आपसी समन्वय की कमी तो कहीं अपनों के धोखे की वजह से हर बार पाकिस्तान में बैठे आतंक के आका अपने इरादों को अंजाम तक पहुंचा देते हैं और हम वही घिसा-पिटा राग अलापते रहते हैं।


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इतिहास गवाह है कि पाकिस्तानी सीमा से जुड़े मसलों और आतंकी वारदातों पर राजनेता ऐसे पेश आते हैं जैसे ये सब पहली या आखिरी बार हो रहा हो। जब-जब देश का सीना छलनी हुआ है तब-तब देश में कड़े शब्दों में निंदा हुई है...सिर्फ निंदा। 'यह कायराना हरकत है, इसे कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता', 'हम इस घटना की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं, इसका उचित जवाब दिया जाएगा'... इस तरह के डायलॉग अब जले पर नमक छिड़कने की तरह लगते हैं। सत्ता बदलने पर उम्मीदें परवान चढ़ती हैं कि अब कुछ ठीक होगा, लेकिन ऐसा लगता है जैसे सिर्फ अदाकार बदलते हैं पटकथा वही रहती है।


कभी विपक्ष में रहने वाले नेता एक के बदले 10 सिर लाने की मांग करते थे वे अब सरकार में होने पर खामोशी की चादर ओढ़े हैं। हमलों में पाकिस्तानियों के शामिल होने के सबूत सौंपने का सिलसिला भी बदस्तूर जारी है और उधर से भी सबूतों के नाकाफी होने का पैगाम आ गया। बेशक, 'ऑपरेशन म्यांमार' के रूप में मोदी सरकार ने एक काबिलेतारीफ कदम उठाया था, लेकिन अभी भी पाकिस्तान को मुकम्मल जवाब देना बाकी है। ऐसे में सिर्फ द्विपक्षीय वार्ताओं से हमें बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं लगानी चाहिये। ये अलग बात है कि 'बात करने से ही बात बनती है', लेकिन पाकिस्तान के मामले में ऐसे जुमले बेमानी ही लगते हैं। 


एक कहावत है- लातों के भूत बातों से नहीं मानते। छह दशकों से उलझा हुआ कश्मीर मुद्दा तो अब विश्व के सर्वाधिक पुराने और अब संभवतः लाइलाज फसादों की फेहरिस्त में शुमार हो चुका है, जिस पर शायद हमेशा सिर्फ बात ही होती रहेगी। ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जब फ्लैग मीटिंग और वार्ताओं के ठीक बाद पाकिस्तान की तरफ से हमले हुए हैं। दो बड़ी वैश्विक ताकतों में शुमार चीन और अमेरिका से पाकिस्तान की नज़दीकियां किसी से छुपी नहीं है। अमेरिका की ओर से मदद के लिये पाकिस्तानी को दिया जाने वाला पैसा किस काम में उपयोग हो रहा है, ये पूरी दुनिया जानती है। विवादित सीमाक्षेत्र में चीन का गैरवाज़िब दखल और हथियारों की सप्लाई भी भारत की मुसीबत का एक कारण है। लेकिन तमाम कूटनीतियों और सकारात्मक वैश्विक छवि के बावजूद हम इससे निपटने में विफल हो रहे हैं।


बचपन के अनुभवों से मुझे एक बात याद आती है। जब कोई बच्चा गलती करता है, तो उसकी मां कहती है कि बेटा ऐसा नहीं करते, ये गंदी बात है। वही गलती जब बच्चा दूसरी बार करता है तो मां प्यार और नसीहत भरा एक तमाचा लगाती है ताकि बच्चा सुधर जाए। सुधार के लिए लाड़-प्यार के साथ थोड़ी पिटाई भी जरूरी होती है। क्या हमारे हुक्मरानों को बचपन में ऐसा प्यारा अवसर नहीं मिला? उन्हें भी उनकी मां ने इस तरह की सीख जरूर दी होगी ना कि रिश्ते बिगड़ने के डर से उनकी हर गलती को नजरअंदाज कर दिया होगा। चुप रहकर सहनशीलता की मिसालें पेश करने से रिश्ते सुधरने वाले नहीं हैं। हिंदुस्तान को अपने तथाकथित छोटे भाई पाकिस्तान के साथ भी यही करना चाहिए। कभी-कभी आदर्शों की अपेक्षा यथार्थ को मद्देनजर रखकर निर्णय ले लेना चाहिए। सिर्फ बापू के अहिंसा धर्म का पालन करने से देश को महफ़ूज़ रख पाना संभव नहीं है। कभी-कभी भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाष जैसे शहीदों का आक्रामक चोला भी धारण करना जरूरी है। ना'पाक' मंसूबों पर पानी फेरने के लिये 'जैसे को तैसा' की नीति अपनानी ही होगी। अन्यथा अफसोस, निंदा, चेतावनी ये सब बेमतलब की बातें हैं।


हजारों बार संघर्ष विराम की शर्तों का उल्लंघन हुआ है, कभी जवानों के सिर काटे गए, कभी आंखें निकाली गईं, कभी देश में घुसकर रक्तपात मचाया... हर बार बर्बरता की हदें पार हुई। लेकिन हमारे नेताओं के श्रीमुख से यही सुनने को मिला कि 'ऐसे हमले बर्दाश्त नहीं किए जाएंगे, हम उचित जवाब देंगे।' तिस पर उन्हीं की थाली के दो-चार चट्टे-बट्टे यह उगलते देर नहीं करते कि 'इन घटनाओं से हमारी शांति वार्ता पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।’ जैसे इनकी वार्ता से देश को बहुत कुछ हासिल हो जाने वाला है। सिर्फ कड़े शब्दों में निंदा करके कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती। 


पाकिस्तान को ठोस जवाब देने के लिये भारत को कूटनीतिक दबाव या अंतरराष्ट्रीय बहिष्कार जैसे प्रयासों पर विचार करना होगा, तभी पाकिस्तानी हुक्मरानों की अक्ल ठिकाने आएगी। चाहे वह लोकतांत्रिक तरीके से नियुक्त सरकार हो या पर्दे के पीछे से सत्ता का संचालन करने वाली सेना हो। अन्यथा ऐसा ना हो कि हिंदुस्तान को इन गलतियों की कीमत 80 के दशक में आई फिल्म निकाह में हसन कमल के लिखे उस गीत की तर्ज पर गुनगुनाकर चुकाना पड़े 'शायद उनका आखिरी हो ये सितम, हर सितम ये सोचकर हम सह गए।' बेशक, विदेश नीति से जुड़े मुद्दे रातों रात नहीं सुलझाए जा सकते, लेकिन ऐसी कोई मजबूरी नहीं है कि भारत को पाकिस्तान की गलत हरकतों को सहन करना पड़े। दर्द का बदला दर्द देकर ही लेना होगा।