पश्चिम बंगाल में फिर चला `दीदी` का जादू
पश्चिम बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस की ऐसी आंधी बहेगी, इसकी उम्मीद शायद न तो `दीदी` को रही होगी और न ही उनके किसी पार्टी कार्यकर्ता को। दीदी के लिए यह किसी अत्प्रत्याशित जीत से कम नहीं है। तृणमूल कांग्रेस को दो तिहाई बहुमत और लगातार दूसरी बार राज्य की सत्ता में वापसी। पश्चिम बंगाल का ये प्रचंड चुनावी नतीजा खुद में काफी कुछ बयां करता है। पश्चिम बंगाल में 34 साल की मजबूत साम्यवादी सरकार को जड़ से उखाड़ फेंकने के बाद सत्तारुढ़ होना और फिर दोबारा वापसी करना यह साबित करता है कि ममता की सत्ता पर कितनी मजबूत पकड़ है।
पश्चिम बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस की ऐसी आंधी बहेगी, इसकी उम्मीद शायद न तो 'दीदी' को रही होगी और न ही उनके किसी पार्टी कार्यकर्ता को। दीदी के लिए यह किसी अत्प्रत्याशित जीत से कम नहीं है। तृणमूल कांग्रेस को दो तिहाई बहुमत और लगातार दूसरी बार राज्य की सत्ता में वापसी। पश्चिम बंगाल का ये प्रचंड चुनावी नतीजा खुद में काफी कुछ बयां करता है। पश्चिम बंगाल में 34 साल की मजबूत साम्यवादी सरकार को जड़ से उखाड़ फेंकने के बाद सत्तारुढ़ होना और फिर दोबारा वापसी करना यह साबित करता है कि ममता की सत्ता पर कितनी मजबूत पकड़ है। ममता ने न केवल सत्ता विरोधी लहर को मात दी बल्कि राज्य की जनता के भरोसे पर भी जीत हासिल की। ऐसा चुनाव परिणाम किसी पार्टी या व्यक्ति (राजनेता) को तभी हासिल होता है जब तक कि वो जनता की नजर में 'सुपर हीरो' न हो। तृणमूल कांग्रेस की इस जबर्दस्त जीत ने यह भी साबित किया कि पूरे सूबे में 'ममता बयार' जमकर बही और दीदी का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोला। 2011 में राज्य की मुख्यमंत्री बनीं ममता बनर्जी ने एक बार फिर अपना दबदबा साबित किया।
चुनाव पूर्व तमाम सर्वेक्षणों में जहां पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की जीत के दावे तो किए जा रहे थे लेकिन सीट घटने की बात कही जा रही थी। लेकिन नतीजा हुआ उलटा। दीदी ने एकतरफा बहुमत के साथ अपने राज्य में जीत दर्ज कर सभी को चौंका दिया। तृणमूल कांग्रेस ने पिछली बार से भी कहीं बेहतर प्रदर्शन किया। राजनीतिक पंडितों के अनुमान भी धरे के धरे रह गए। उन्हें भी इसकी उम्मीद शायद नहीं होगी। ममता बनर्जी ने फिर अपना दबदबा साबित करते हुए इस चुनाव में भी वाम-कांग्रेस गठबंधन तथा बीजेपी को बहुत पीछे छोड़ दिया। प्रचंड बहुमत हासिल करके ममता के सिर पर अब दोबारा मुख्यमंत्री का ताज आ गया है।
पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार ममता बनर्जी के लिए परिस्थितियां इतनी आसान नहीं लग रही थी लेकिन दीदी को भी शायद आसान राजनीति रास नहीं आती। मुश्किलों से पार पाना उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी है। ममता की छवि वैसे भी निर्भीक, मजबूत, साहसी, फाइटर राजनेत्री के रूप में रही है। इन्हीं खूबियों के चलते ममता ने लोकसभा चुनावों की सफलता को अपने राज्य में फिर दोहरा दिया। ममता ने पश्चिम बंगाल में 34 वर्ष तक शासन करने वाले वाममोर्चा की सरकार को साल 2011 में सत्ता से बेदखल किया था और पहली बार राज्य की मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली थी।
इस बार चुनाव में एक दिलचस्प बात यह सामने आई कि वामदल तीसरे नंबर पर खिसक गई जबकि उसकी गठबंधन सहयोगी कांग्रेस को उनसे ज्यादा सीटें मिली। माकपा और कांग्रेस का एक साथ मिलकर चुनाव लड़ना दोनों ही दलों के लिए बड़ी भूल साबित हुई। वहीं, बीजेपी बंगाल में थोड़ी पैठ बनाने में कामयाब रही। इसी को ध्यान में रखकर ममता ने जीत के बाद यह कहने से गुरेज नहीं किया, 'उनकी पार्टी ने अकेले खड़े होकर तमाम विरोधियों को धूल चटा दिया। विरोधियों के हमेशा मुश्किल में डालने के बावजूद उन्होंने सबका सामना किया।
मेरी छवि खराब करने की कोशिश की गई, लेकिन जनता ने इसका जवाब दे दिया।'
इस बार का चुनाव ममता ने अपने दम पर लड़ा और अपने चिर विरोधी वामपंथियों और कांग्रेस के एकजुट होने से भी उनके अभियान पर कोई खास असर नहीं हुआ। चुनाव से ठीक पहले नारद स्टिंग के सामने आने से उनकी सरकार के लिए नई मुसीबत खड़ी हो गई। उनके कार्यकाल में सारदा चिटफंड घोटाले की गूंज देशभर में सुनाई दी और ममता सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे। विरोधियों ने इस मुद्दों को खूब हवा भी दिया, फिर भी ममता तमाम आरोपों के बावजूद डटी रहीं। शारदा स्कैम जैसे बड़े घोटाले का दाग लगने और इसमें कई मंत्रियों के जेल जाने के बाद ममता बनर्जी की राजनीतिक राह थोड़ी मुश्किल जरूर हुई लेकिन चुनावी नतीजे ही बताते हैं कि वह किसी मायने में कमजोर नहीं पड़ी। इस बार के चुनाव में जब कभी उनसे सीटें घटने की बात कही जाती थी तो दीदी इसे विरोधियों का शिगुफा बताकर खारिज कर देतीं। अपनी चुनावी रैलियों में वह विरोधियों को सीधे मुकाबला करने की चुनौती देती थीं। अपने नेताओं और कार्यकर्ता को भी गलती पर फटकार लगाने से नहीं चूकती थीं। बीजेपी, वामदल और अन्य विरोधी नेता मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही ममता पर तानाशाही का आरोप लगाते रहे, लेकिन ममता तनिक भी इससे विचलित होती नहीं दिखीं। पीएम मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह समेत कई केंद्रीय मंत्रियों और राज्य स्तर के भाजपा नेताओं ने ममता को उनके राज्य में घेरने का प्रयास किया लेकिन अंतत: उन्हें रोकने के सारे प्रयास विफल साबित हुए।
विरोधियों के तमाम हथकंडों के बावजूद ममता का पार्टी के साथ ही राज्य पर पूर्ण नियंत्रण रहा। ये बंगाल में दीदी के बढ़ते कद का ही प्रभाव था कि मुख्य विपक्षी वामदल को भी उनसे टक्कर लेने के लिए पहली बार कांग्रेस से गठजोड़ करने के लिए मजबूर होना पड़ा। ममता बनर्जी एकला चलो की नीति पर बनी रहीं और इसे भी अपने लिए चुनौती के तौर पर लिया। इसमें अब कोई संशय नहीं रहा कि ममता का मां, माटी और मानुष का नारा सीधे आम बंगाली के दिलों में उतर गया। पिछले चुनाव में टीएमसी को जहां 184 सीटों पर जीत मिली थी, वहीं इस बार पूर्व के मुकाबले 213 सीटों पर जीत दर्ज की।
निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से आने वाली ममता अपनी सादगी के लिए जानी जाती हैं। सफेद सूती साड़ी और हवाई चप्पल उनकी खास पहचान बन चुकी है। उनकी इस सादगी का जादू भी जनता को खूब भाया। वैसे भी राज्य की जनता के बीच दीदी की पहचान सादगी की प्रतीक और जमीन से जुड़ी नेता के रूप में होती है। शासन व्यवस्था को जनता के सरोकारों के साथ आगे बढ़ाने की पैरोकार रहीं ममता को अब जनता के भरोसे को बरकरार रखते हुए उन्हें विकास के उस डगर पर पहुंचाना होगा जिसकी उम्मीद लोगों ने पाली हैं।
वाममोर्चे की सरकार को उखाड़ फेंकने को उनकी राजनीतिक यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है। पूर्व में तो कोई यह अनुमान भी नहीं लगा सकता था, जो हाल आज वामदलों का हुआ। अब जबकि ममता की दोबारा सत्ता में वापसी हो चुकी है, ऐसे में उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती उद्योग जगत और सुस्त आर्थिक वृद्धि को पटरी पर लाना होगा। पश्चिम बंगाल को इस चुनौती से निकालना अब उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी। शायद इसी को ध्यान में रखकर अब उन्होंने जीएसटी जैसे मुद्दों पर केंद्र का साथ देने का ऐलान भी किया। राज्य के इस चुनाव में जिस भी कारण से जनता पूरी तरह से ममता बनर्जी के साथ आ गई, उसको लेकर विरोधियों को जरूर मंथन करना चाहिए कि इसके कारण क्या हैं। ममता ने इशारों में संकेत भी किया कि राजनीति के गिरते स्तर पर अब उन्हें शर्म आती है और इसलिए राजनीति में लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए।