ताकि पेड़ों की छांव बनी रहे
विकास के नाम पर जहां एक तरफ हम पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के लिए 'कुल्हाड़ी' उठाए तत्पर हैं। वहीं, दूसरी तरफ विभिन्न शहरों में कुछ हाथ पेड़ों के संरक्षण के लिए मुठ्ठी बांधे बुलंद हैं। मेरी दिलचस्पी ऐसे ही हाथों के प्रति है। वर्षों पहले मेरे गृहराज्य में पेड़ों को काटने के विरोध में एक महान आंदोलन का सूत्रपात हुआ। दुर्भाग्यवश! मैं उस 'चिपको आंदोलन' को अपनी आंखों से नहीं देख पाया। लेकिन, मेरी कल्पनाओं में पेड़ों से चिपकी पहाड़ी औरतें हमेशा कई विंब बनाती रहीं।
मैं अपने आस-पास गौरा देवी, सुंदरलाल बहुगुणा की छवि को महसूस करते रहा। वक्त बीतने के साथ पेड़ों की छांव अतीत बनती गई और संकरी उबड़-खाबड़ गलियों में लहलहाते पत्तों की कल्पना में कई साल बीत गए। हालांकि, प्रकृति के पास लौटने की छटपटाहट बनी रही। इन शब्दों को लिखते वक्त भी बनी हुई है और आगे भी बनी ही रहेगी! कब तक यह कहना मुश्किल है। अगर हम पेड़ों के प्रति इसी तरह उदासीन बने रहे तो वो दिन दूर नहीं जब 'हरियाली' कहानी भर रह जाएगी। मनुष्य की इस उदासीन प्रवृत्ति पर कवि मित्र राधाकांत पांडेय कहते हैं
उड़ते परिन्दे आसमान से चले गए हैं
कोयल की कूंक न निशानी रह जाएगी
मौसम सुहाना, था वो गुजरा ज़माना कहे
हमने करीं हैं जो नदानी, रह जाएगी
गौर से सुनो हवा का झोंका कहे बार-बार
सम्हले नहीं तो ये कहानी रह जाएगी
पेड़ ही नहीं बचे तो दुनिया बचेगी कैसे
और सोचो कैसे ज़िंदगानी रह जाएगी
शहरों की आपाधापी और भागदौड़ भरी जीवनशैली में झकड़े लोगों के पास 'सिर' उठाकर पेड़ों की तरफ देखने का वक्त तक नहीं है। वैसे तो शहरों में पेड़ों के दर्शन ही दुर्लभ हैं लेकिन जहां होते भी हैं तो लोग उदासीन नजर आते हैं। हालांकि, कुछ ऐसे भी लोग हैं जो प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन के लिए कई सालों से प्रयासरत हैं। दिल्ली जैसे विशाल और चकाचौंध भरे शहर में पद्मावती द्विवेदी पिछले कई सालों से पेड़ों को कंक्रीट मुक्त करने और उनके संरक्षण और संवर्धन के लिए काम कर रही हैं। उन्होंने साल 2005 में सर्वोदय इन्कलेव से पेड़ों को बीमारियों से बचाने और उनको कंक्रीट मुक्त करने का अभियान चलाया और धीरे-धीरे जनता इसके साथ जुड़ती गई। पहली बार मैंने जब इस मुहिम के बारे में सुना तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ कि रफ्तारनुमा इस शहर में पेड़ों के प्रति इतने संवेदनशील लोग भी रहते हैं।
आंध्र प्रदेश के एक छोटे से गांव से संबंध रखने वाली पद्मावती ने दिल्ली के सर्वोदय इन्कलेव में 700 के करीब और कुतुब गोल्फ रोड पर 50 से ज्यादा पेड़ों को कंक्रीट मुक्त कराया है। पद्मावती बताती हैं कि उनके दादा-दादी आंध्र प्रदेश में गोदावरी नदी से सटे गांव में रहते थे। बचपन में गर्मियों की छुट्टियां गांव में ही बितती थी। गांवों में तारकोल और सीमेंट से पेड़ों की घेराबंदी नहीं की जाती है। पेड़ों को स्वाभाविक स्थिति में बढ़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। जबकि इसके इतर शहरों में पेड़ों की घेराबंदी कर दी जाती है। ऐसे में बारिश की बूंदें पेड़ों की जड़ों तक नहीं पहुंच पाती हैं और पेड़ बीमारियों से संक्रमित हो जाते हैं।
पेड़ों को तारकोल से मुक्त करने के साथ ही पेड़ों की जनगणना के लिए भी दिल्ली के विभिन्न स्कूल, कॉलेजों और कॉलोनियों में समूह बनाए गए हैं। इन समूहों का काम अपनी-अपनी कॉलोनियों में पेड़ों की जनगणना करना है। सर्वोदय इन्कलेव, वसंत विहार, गुलमोहर पार्क, श्रीराम स्कूल गुड़गांव, सिस्टर निवेदिता स्कूल, रामजस स्कूल, जाकीर हुसैन कॉलेज, गार्गी कॉलेज और जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज में पेड़ों के संरक्षण और सेंसस के लिए ट्रेनिग भी दी जा रही है। पद्मावती बताती हैं कि दिल्ली नगर निगम के बागवानी विभाग ने बीमार पेड़ों के इलाज में हमारी मदद की और पेड़ों के संरक्षण के इस मुहिम में अपने योगदान दिया। पेड़ों के संरक्षण और संवर्धन के लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं और पर्यावरणविदों के साथ मिलकर काम किया जा रहा है।
दिल्ली के अलावा बेंगलुरु और वृंदावन में भी ऐसे कई ग्रुप हैं जो पेड़ों के संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं। अगर शहरों की जनता पेड़ों के संरक्षण के प्रति सचेत हो जाएगी तो खोई हरियाली फिर से लौट आएगी और सुस्ताने के लिए पेड़ों की छांव बची रहेगी।