21000 रु में जमशेदजी ने खड़ा किया बिजनेस साम्राज्य, जिसे दुनिया जानती है टाटा के नाम से, जानते हैं कैसे मिला ये सरनेम?
Tata Family: टाटा यानी कि देश का एक ऐसा ब्रांड, जो भरोसे और विश्वसनीयता का दूसरा नाम है, जिसके प्रोडक्ट्स पर लोग आंख मूंद के भरोसा करते हैं. व्यापारकरने के अलावा टाटा फैमिली ने बहुत नाम भी कमाया, लेकिन जानते हैं कहां से आया ये नाम?
Where did Tata Surame Come From: आज भारत की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक टाटा ब्रांड, विश्वसनीयता का दूसरा नाम है. भारत का टाटा ग्रुप एक मल्टी नेशनल कंपनी है, जिसने परी दुनिया में अपनी एक अलग पहचान कायम की है. यह पहचान ऐसे ही नहीं बनी. इसके पीछे टाटा फैमिली की कई पीढ़ियों की कड़ी मेहनत है, जिन्होंने केवल पैसा नहीं कमाया, बल्कि करोड़ों-अरबों लोगों का भरोसा भी जीता. आज टाटा परिवार को बहुत ही सम्मानजनक नजर से देखा जाता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि हमेशा से इस परिवार के साथ टाटा सरनेम नहीं जुड़ा था. जी हां, आपको यह पढ़कर हैरानी जरूर होगी, लेकिन यह सच है. कम ही लोग जानते होंगे कि इस सरनेम के पीछे की कहानी. चलिए जानते हैं कि परिवार को टाटा सरनेम कहां से मिला...
टाटा ग्रुप की नेट वर्थ
हुरुन इंडिया रिच लिस्ट 2024 के मुताबिक, रतन टाटा की कुल संपत्ति 7,900 करोड़ रुपये है. जमशेदजी टाटा द्वारा 1868 में स्थापित टाटा ग्रुप आज विश्व के 6 महाद्वीपों और 150 से ज्यादा देशों में अपने प्रोडक्ट्स और सर्विसेस के जरिए अपनी मौजूदगी बनाए है. जमशेदजी को टाटा समूह के संस्थापक के तौर पर जाना जाता है.
टाटा परिवार की जड़ें
जमशेदजी का जन्म 3 मार्च 1839 को गुजरात के नवसारी हुआ था. मनी कंट्रोल की रिपोर्ट के मुताबिक टाटा मूल रूप से दस्तूर (पुजारी) परिवार था. पारसी कम्युनिटी से आने वाले राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के उपाध्यक्ष केरसी कैखुशरू देबू ने बताया था कि पारसी लोग फारस से आए थे. उनका पहला जत्था गुजरात के संजान में आया था, जो आगे तक फैलने लगा. पहली बार 1122 में पारसी लोग नवसारी आए, तभी पारसी पुजारियों का एक दल भी साथ आया था. इस तरह नवसारी में पारसियों की पहली बस्ती बनी, जिसमें फायर टेंपल (पारसियों का पूजाघर) और टॉवर ऑफ साइलेंस (अंतिम संस्कार का स्थान) का निर्माण हुआ. फायर टेंपल के पुजारियों को दस्तूर कहा जाता है. इस तरह जमशेदजी के पूर्वज भी इसी परिवार से थे.
ये है टाटा सरनेम की कहानी
इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि नसरवानजी टाटा ने ए छोटे बिजनेस से शुरुआत की. जमशेदजी उनके बड़े बेटे थे, जिन्होंने 17 साल की उम्र में मुंबई के एलफिंसटन कॉलेज में एडमिशन लिया और टॉपर रैंक के साथ डिग्री हासिल की. आगे चलकर वह पिता के व्यवसाय में लग गए. बताया जाता है कि जमशेदजी बहुत महत्वाकांक्षी थे और वह बड़ा बिजनेस करना चाहते हैं. तब नसरवानजी ने उन्हें 21,000 रुपये दिए, जो तब एक मोटी रकम था. इन रुपयों से जमशेदजी ने एक बड़ा बिजनेस साम्राज्य खड़ा कर दिया. अब जानेंगे कि आखिर टाटा सरनेम आया कहां से तो केरसी कैखुशरू देबू के मुताबिक इस परिवार के पूर्वज काफी गर्म मिजाज के थे. गुजराती में गर्म दिमाग वाले को व्यक्ति को टाटा कहा जाता है. इसलिए उन्हें सब टाटा कहते थे. बाद में यही शब्द सरनेम के साथ जुड़ा और टाटा हो गया.
ऐसे तलाशी संभावनाएं
जमशेदजी 29 साल की उम्र तक पिता के कारोबार में हाथ बंटाया. इसके बाद अफीम के साथ खुद का कारोबार शुरू किया, जिसमें उन्हें नाकामी मिली. इस दौरान उन्होंने कई देशों की यात्रा की. ब्रिटेन में लंकाशायर कॉटन मिल देखकर उन्हें इस कारोबार की क्षमता और संभावनाओं का अहसास हुआ. भारत लौटकर जमशेदजी ने बॉम्बे में एक दिवालिया हो चुकी ऑयल मिल खरीदी और एलेक्जेंड्रा नाम से कपड़ा मिल खोली, जो चल निकली. इस तरह वह कामयाबी की सीढ़िया चढ़ते चले गए.
नेक काम में सबसे आगे
पारसियों समुदाय की पहचान दानी-परोपकारी लोगों के तौर पर होती है. वहीं, टाटा परिवार में तो यह परंपरा उनके पूर्वजों के जमाने से चली आ रही है. जमशेदजी भी इस नेक काम में बहुत आगे रहे. बेंगलुरु स्थित देश का सबसे बड़ा साइंस इंस्टीट्यूट, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, मुंबई का टाटा कैंसर अस्पताल भी टाटा ग्रुप की ही देन है. नवसारी में टाटा के दो स्कूल एक बॉयज और एक गर्ल्स स्कूल हैं. वहां जमशेदजी के नाम पर एक ऑडिटोरियम भी है. नवसारी में टॉवर ऑफ साइलेंस के लिए जमीन भी टाटा परिवार ने ही दी थी. टाटा का जो सिंबल है उसके नीचे लिखा है, 'हुमंडा हुक्ता हावर्तसम' यानीकि सदवचन, सदाचार और अच्छा आचरण.