Lok Sabha Chunav: एक सीट पर दो सांसद, मतदाताओं को दो वोट देने का हक; क्यों अपनाया गया था ये अनोखा फॉर्मूला?
Lok Sabha Election News: देश में पहले और दूसरे आम चुनाव यानी साल 1952 और 1957 में ऐसा अनोखा फॉर्मूला अपनाया गया था कि एक सीट पर दो-दो सांसदों को चुना जाता था. वहीं, मतदाताओं को भी एक सीट पर दो उम्मीदवारों को अलग-अलग वोट डालने का हक था. आइए, जानते हैं कि संसदीय चुनाव में इस अनोखी व्यवस्था की वजह क्या थी?
Lok Sabha Election Story: क्या आपको पता है कि देश के पहले और दूसरे आम चुनाव यानी साल 1952 और 1957 में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान एक अनोखी व्यवस्था थी जिस पर आजकल यकीन करना भी मुश्किल है. संसदीय चुनाव की इस व्यवस्था के तहत एक सीट पर दो-दो सांसदों को चुना जाता था. इसके साथ ही मतदाताओं को भी एक सीट पर दो वोट देने का अधिकार था. हालांकि, वह दोनों वोट एक ही उम्मीदवार को नहीं डाल सकते थे.
आरक्षित वर्ग को भी उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए थी अनोखी व्यवस्था
चुनाव आयोग ने ऐसी व्यवस्था की थी कि हरेक मतदाता अपने दोनों वोट दो अलग-अलग प्रत्याशियों को ही दे सकते थे. ऐसे अनोखे चुनावी फॉर्मूला अपनाने के पीछे दलील दी गई थी कि इस से आरक्षित वर्ग को भी उचित प्रतिनिधित्व मिल सकेगा. इस चुनावी व्यवस्था के जरिए देश में लोकसभा चुनाव में एक संसदीय सीट पर दो सांसद जीतते थे. लोकसभा चुनाव 1952 में 89 सीटों पर और लोकसभा चुनाव 1957 में 90 सीटों पर दो-दो उम्मीदवार चुनाव जीते थे. इन दोनों उम्मीदवारों में एक सीट सामान्य और दूसरा आरक्षित यानी एससी-एसटी वर्ग के हुआ करते थे.
25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 के बीच देश में पहला आम चुनाव
अगस्त, 1947 में आजादी और जनवरी 1950 में संविधान लागू होने के बाद साल देश में पहली बार लोकसभा चुनाव आयोजित किए जाने की तैयारी शुरू हुई. इसके लिए जनवरी 1950 में ही भारत निर्वाचन आयोग का भी गठन किया गया था. पहली लोकसभा के चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 के बीच कराए गए थे. इसकी सफलता के बाद 17 अप्रैल 1952 को पहली लोकसभा का गठन किया गया. लोकसभा चुनाव में कुल लोकसभा सीटों की संख्या 489 थी, लेकिन संसदीय क्षेत्रों की संख्या 401 थी. कांग्रेस ने 364 सीटें जीती थीं.
एक लोकसभा क्षेत्र में दो सांसद चुने जाने की व्यवस्था का 1957 में अंत
इसके बाद जवाहर लाल नेहरू फिर से प्रधानमंत्री चुने गए थे और लोकसभा की पहली बैठक 13 मई, 1952 को आयोजित की गई थी. उस समय लोकसभा की 314 संसदीय सीटें ऐसी थीं जहां एक-एक सांसद चुने गए थे. वहीं, 89 लोकसभा सीटों पर एक से ज्यादा सांसद जीते थे. इन सभी सीटों पर दो-दो लोगों को सांसद चुना गया था. नॉर्थ बंगाल लोकसभा क्षेत्र से तो तीन सांसद चुने गए थे. किसी एक लोकसभा क्षेत्र में दो सांसद चुने जाने की यह व्यवस्था दूसरे लोकसभा चुनाव 1957 में भी जारी रही. हालांकि, काफी विरोध होने पर लोकसभा चुनाव 1962 में इस व्यवस्था को खत्म करना पड़ा था.
क्यों कराए जाते थे ऐसे अनोखे चुनाव? किसलिए हुआ भारी विरोध
देश के आरक्षित वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए चयनित लोकसभा सीटों पर दो-दो सांसद बनाने का अनोखा फॉर्मूला अपनाया गया था. इन लोकसभा सीटों के वोटर को भी दो-दो वोट डालने का अधिकार दिया गया था. मतदाताओं को दोनों वोट एक ही उम्मीदवार को देने से मनाही थी. वे एक वोट सामान्य उम्मीदवार को और दूसरा वोट आरक्षित उम्मीदवार को डालते थे.
इसके बाद मतगणना के दौरान सामान्य वर्ग के जिस उम्मीदवार को सबसे ज्यादा वोट मिलते थे. वह जीत जाता था. इसी तरह आरक्षित वर्ग के जिस उम्मीदवार को सबसे ज्यादा वोट मिलते थे. वह भी सांसद चुन लिया जाता था. इसी दौरान पंजाब में एक सीट से दो प्रतिनिधि सिस्टम का काफी विरोध हुआ था. जो बाद में इस फॉर्मूले के खत्म होने का कारण बना था.
पंजाब में तीसरे नंबर पर रहे एक उम्मीदवार के विधायक बनने पर हंगामा
देश में 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही हुआ करते थे. आम चुनाव 1957 में पंजाब की नवांशहर विधानसभा सीट पर हुए चुनाव में वोट काऊंटिंग के दौरान तीसरे नंबर पर रहे उम्मीदवार बिशना राम को आरक्षण और प्रतिनिधित्व के नाम पर विधायक चुन लिया गया था. मतगणना में पहले नंबर पर गुरबचन सिंह नाम के उम्मीदवार को 20 हजार 593 और दूसरे नंबर पर रहने वाले दलीप सिंह को 18 हजार 408 वोट मिले.
वहीं, बिशना राम को 17 हजार 858 वोट मिले थे. सामान्य वर्ग से आने वाले गुरबचन सिंह को विधायक चुना गया. दूसरे नंबर पर रहने वाले दलीप सिंह भी सामान्य वर्ग से थे. इसलिए बिशना राम को विधायक चुन लिया गया था. इसके बाद काफी हंगामा हुआ था.