New Web Series In Hindi: 13 जून 1997. साउथ दिल्ली का सबसे लोकप्रिय सिनेमाघर उपहार. दिन में तीन से छह का शो. फिल्म, बॉर्डर. इन सबको जोड़ दें तो देश के इतिहास में हुई सबसे बड़ी त्रासदियों में शुमार घटना की तस्वीर तैयार हो जाती है. जिसमें सिनेमाघर में आग लगने की वजह से 59 लोगों ने अपनी जान गंवा दी. इस हादसे जैसा दूसरा हादसा नहीं मिलता. लेकिन इसमें दोषियों को सजा दिलाने और पीड़ितों को न्याय दिलाने का संघर्ष भी अभूतपूर्व है. उसमें घनी पीड़ा और बड़ी तकलीफ का लंबा सिलसिला है. लगभग 25 बरस. तब भी यह कह पाना पूरी तरह संभव नहीं कि क्या वाकई दोषियों को सजा मिली और पीड़ितों से साथ न्याय हुआ. नेटफ्लिक्स इंडिया अब इसी मानवीय लापरवाही से हुई त्रासद दुर्घटना पर आधारित वेब सीरीज लेकर आया है, ट्रायल बाय फायर.


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खून से रंगे रसूखदार हाथ
ट्रायल बाय फायर उपहार सिनेमाघर में लगी आग में मारे गए दो बच्चों, 13 साल के उज्ज्वल और 17 बरस की उन्नति के माता-पिता नीलम और शखेर कृष्णमूर्ति के न्याय के लिए बरसों-बरस लड़ने की संघर्ष भरी कहानी है. जो हमारे समाज में लापरवाही से काम करने के ढंग से लेकर सिस्टम की लापरवाहियों के साथ न्याय व्यवस्था के जटिल तंत्र को खोलकर रख देती है. यह कहानी बताती है कि कहने को भले ही देश में कानून सबके लिए बराबर है, मगर इस व्यवस्था में देश में अमीर कुछ भी करके छूट जाते हैं. भले ही उनके हाथ दर्जनों मासूमों के खून से रंग हों. यही वजह है कि वेब सीरीज में नीलम कृष्णमूर्ति (राजश्री देशपांडे) उपहार सिनेमाघर के मालिकों को कोर्ट द्वारा बरी कर दिए जाने पर जब कहती हैं कि ‘अगर मैं उसी दिन मेरे बच्चों के हत्यारों को गोली मार देती तो मन में कम से कम न्याय का संतोष रहता’, तब यह बात अतिशयोक्ति नहीं लगती.



तारीख पर तारीख...
पौन-पौन घंटे की सात कड़ियां उपहार हादसे के हर पक्ष को समेटती हैं. कोर्ट में यहां 21 साल तक मामला खिंचता जाता है और इसका तनाव दर्शक के रूप में आप भी महसूस करते हैं. तारीख पर तारीख. दोषी के रूप में अगर कोई गिरफ्तार होता है, जेल भी जाता है, तो वह नीचे के लोग. आप देखते हैं कि कैसे आधी दिल्ली पर अधिकार रखने वाले बंसल बंधु पूरे परिदृश्य से गायब रहते हैं. वह सीरीज में कुछ पल को ही नजर आते हैं. उनके लिए काम करने वाले या तो पैसा खिला कर या फिर धमका कर पीड़ितों को मुंह बंद रखने को कहते हैं. अदालत में केस लगातार कमजोर पड़ता जाता है, पुलिस से सीबीआई के पास चला जाता है. मगर तब आरोपियों के विरुद्ध आरोप और कमजोर कर दिए जाते हैं.


कोई जीते, कोई हारे
ट्रायल बाय फायर देखते हुए आपके मन में कहीं हल्की उम्मीद रहती है कि शायद न्याय होगा. मगर आप निराश होते हैं. पूरी सीरीज में दोषियों को सजा दिलाने की सरकार, सीबीआई या पुलिस की तरफ से खास कोशिशें नहीं दिखतीं. सारे प्रयास नीलम और शखेर कृष्णमूर्ति (अभय देओल) व्यक्तिगत स्तर पर करते हैं. बहुत भाग-दौड़ करके वे पीड़ित परिवारों का एक संगठन बनाते हैं, जिसके हक में लड़ने के लिए सुप्रीम कोर्ट के वकील के.टी.एस. तुलसी आते हैं. मगर रसूखदार अंसल बंधुओं की तरफ से देश के बड़े से बड़े वकील अदालत में खड़े होते हैं. आप धन-बल के मामले में एक गैर-बराबरी का मुकाबला देखते हैं. जिसमें एपिसोड-दर-एपिसोड न्याय की उम्मीद कम होती चली जाती है. इस तरह से ट्रायल बाय फायर काफी हद तक आपको उदास भी करती है. संभवतः यही बड़ा सच है कि न्याय की अधिकतर लड़ाइयों में फैसला आते-आते न्याय ही नहीं बचता. फिर चाहे कोई जीते, कोई हारे.


खुला रखें दिमाग
अगर आप उपहार सिनेमाघर कांड की सचाई और इसमें न्याय की लड़ाई के बारे में जानने को उत्सुक हैं, तो निश्चित ही यह वेब सीरीज आपके लिए है. लेकिन आप इसे इसलिए भी देख सकते हैं कि समाज या आम आदमी की सुरक्षा को लेकर हमारे यहां किस तरह से सोचा जाता है और अगर आम आदमी को कभी रसूखदारों के विरुद्ध न्याय पाने के लिए लड़ना पड़ जाए तो रास्ता कितना कठिन और लगभग कभी न खत्म होने वाला है. राजश्री देशपांडे और अभय देओल ने अपने किरदारों को जीवंत कर दिया है. उनकी जितनी भी तारीफ की जाए, कम है. राजेश तैलंग, आशीष विद्यार्थी, अनुपम खेर, रत्ना पाठक शाह अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं. सीरीज का घटनाक्रम सीधी लाइन में नहीं चलता और घटनाएं तथा समय आगे-पीछे होते रहते हैं. अतः आपको अपना दिमाग खुला रखना पड़ता है. लेखन-निर्देशन कसा हुआ है. यह सीरीज नीलम और शखेर कृष्णमूर्ति की किताब ट्रायल बाय फायर पर आधारित है. हिंदी में इस किताब का अनुवाद अग्निपरीक्षा नाम से उपलब्ध है.


निर्देशकः प्रशांत नायर, रणदीप झा, अवनी देशपांडे
सितारेः राजश्री देशपांडे, अभय देओल, राजेश तैलंग, आशीष विद्यार्थी, अनुपम खेर, रत्ना पाठक शाह
रेटिंग ***1/2


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