Homi Bhabha Vikram Sarabhai: युद्ध सिर्फ सीमा पर नहीं लड़े जाते. आधुनिक जमाने में देश एक-दूसरे के खिलाफ मानसिक और आर्थिक स्तर पर लड़ते रहे हैं. ऐसे में ताकतवर देशों के सामने खड़े रहना और चारों दिशाओं में अपनी तरक्की की राह खोलना आसान नहीं होता. कोई विकास एक दिन, कुछ महीनों या चंद बरसों में नहीं होता. कई-कई दशक लगते हैं. तब अपने पैरों के नीचे ठोस जमीन दिखाई देती है. आधुनिक भारत का सपना देखने वाली वैज्ञानिक आंखों और इसके लिए दुनिया से संघर्ष करने वाले लौह-नेताओं को जानना-समझना चाहते हैं तो आपको निश्चित रूप से सोनी लिव पर प्रसारित वेब सीरीज रॉकेट बॉय्ज देखनी चाहिए. इसका दूसरा सीजन अब रिलीज हुआ है. अगर आपने पहला सीजन देखा है, तो दूसरे को किसी हाल में न छोड़ें. लेकिन आपने इस सीरीज को अभी तक देखा ही नहीं है, तो अवश्य देख लें.


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चौतरफा संघर्ष
रॉकेट बॉय्ज होमी भाभा और विक्रम साराभाई की कहानी है. जिसमें आगे चलकर डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम भी जुड़ जाते हैं. दूसरे सीजन में होमी भाभा (जिम सरभ) देश के परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए उसे अमेरिकी पंजे से आजाद कराने की कोशिश में लगे हैं, जबकि विक्रम साराभाई भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की तरक्की के लिए अपने ही सिस्टम से संघर्ष कर रहे हैं. भाभा जहां आक्रामक अंदाज में सोचते हुए मानते हैं कि देश को परमाणु बम बनाने की जरूरत है, वहीं विक्रम साराभाई मानते हैं कि देश के सामने शांति और विकास की चुनौतियां हैं. लेकिन यही वह दौर है, जब 1962 में चीन के विरुद्ध भारत जंग हार चुका है और 1971 में पाकिस्तान ने भारत पर युद्ध थोप दिया है. चीन भी पाकिस्तान के साथ खड़ा है. पाकिस्तान को अमेरिकी शह भी मिली हुई है. इसी दौरान भारत ने जवाहर लाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री जैसे दो दूरदृष्टा प्रधानमंत्री खो दिए हैं.


अमेरिकी दबाव के विरुद्ध
रॉकेट बॉय्ज की कहानी होमी भाभा और विक्रम साराभाई के युवा दिनों से लेकर भारत के पहले परमाणु परीक्षण (1974) तक जाती है. रॉकेट बॉय्ज का दूसरा सीजन इस बात का बेहतरीन उदाहरण है कि कैसे वेब सीरीज को अनावश्यक तथ्यों और गैर-जरूरी विस्तार के मोह से बचना चाहिए. मुद्दे की बात करनी चाहिए. बायोपिक कहानियों में किरदारों को कैसे उनके जीवन के नजदीक रखना चाहिए. रॉकेट बॉय्ज आठवें दशक तक की बात करती है और बताती है कि कैसे भारत ने अमेरिकी दबाव को अपने ऊपर से खत्म किया. कैसे पहला परमाणु परीक्षण किया. नेहरू, शास्त्री से लेकर इंदिरा गांधी तक का राजनीतिक नेतृत्व भी यहां सामने आता है. कैसे उन्होंने अंदरूनी और बाहर चुनौतियों से निबटा. हालांकि इसमें कांग्रेस की आंतरिक कलह भी सामने आती है, मगर वह पार्टी में लोकतंत्र और नेताओं की स्वतंत्रता को भी दिखाती है.



बायोपिक में थ्रिल
रॉकेट बॉय्ज के दूसरे सीजन की खूबी इसकी राइटिंग है. डायलॉग और निर्देशन में कमाल नजर आता है. सिर्फ एक बात अखरती है कि कई जरूरी जगहों पर संवाद अंग्रेजी में हैं. यह कहानी दो महान वैज्ञानिकों की बायोपिक होने के बावजूद किसी थ्रिलर की तरह आगे बढ़ती है. भाभा अमेरिकियों के आंख की किरकिरी बन जाते हैं और कैसे देश के अंदर भी कुछ लोग दुश्मनों के हाथों में खेलते हैं. भाभा का दृढ़ निश्चय, उन्हें रोकने की अमेरिकी कोशिशों का पूरा हिस्सा बेहद रोमांचक है. यह अलग बात है कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए अंततः उन्हें रास्ते से हटाने में कामयाब होती है, परंतु इसके बाद विक्रम साराभाई और इंदिरा गांधी की भूमिका पोखरण परीक्षण तक अत्यंत महत्वपूर्ण होती है और आखिर में भारतीय वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से 18 मई 1974 को ‘बुद्ध मुस्कराए’. अमेरिका खिसियानी बिल्ली की तरह खंभा नोंचता रहा.


सारे जहां से अच्छा
रॉकेट बॉय्ज में आपको पांचवें से आठवें दशक के राजनीतिक नेतृत्व का साहस और वैज्ञानिकों की जिद तथा दूरदर्शिता देखने मिलती है और वह आपके दिल को छूती है. देश यूं ही नहीं आज दुनिया में सिर उठाए खड़ा नजर आता है. वेब सीरीज में उस दौर के सारे किरदार जीवंत हो गए हैं. भाभा और विक्रम साराभाई की निजी जिंदगी की कहानियां खूबसूरती से उभरकर आती हैं. इंदिरा गांधी की भूमिका में चारू शंकर अच्छी लगी हैं. जिम सरभ और इश्वाक सिंह हर लिहाज से बेहतरीन हैं. दोनों को इन भूमिकाओं के लिए लंबे समय तक याद रखा जाएगा. अमेरिकी एजेंट की तरह काम करते के.सी. शंकर और परमाणु साइंटिस्ट मेहंदी रजा की भूमिका में दिब्येंदु भट्टाचार्य असर छोड़ते हैं. रजा की कहानी दुखद ढंग से खत्म होती हुई याद रह जाती है. रॉकेट बॉय्ज के दूसरे सीजन में आठ कड़ियां हैं, जिनका औसत समय 40 से 45 मिनट है. यह ऐसी वेब सीरीज है, जिसके लिए समय निकाला जाना चाहिए. आपको देश के लिए जीने की जिद और सच्चे देशप्रेम के मायने समझ आएंगे.


निर्देशकः अभय पन्नू
सितारे : जिम सरभ, इश्वाक सिंह, सबा आजाद, अर्जुन राधाकृष्णन, रेगिना कासांद्रा, दिब्येंदु भट्टाचार्य, चारू शंकर, के.सी. शंकर, नमित दास
रेटिंग****


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