सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने एक ऐतिहासिक फैसले में गुरुवार को जेलों में जाति आधारित भेदभाव को प्रतिबंधित कर दिया और इस प्रकार का भेदभाव करने वाले 10 राज्यों के जेल नियमावली को ‘असंवैधानिक’ करार दिया. इन भेदभावों में शारीरिक श्रम का विभाजन, बैरकों का पृथक्करण तथा विमुक्त जनजातियों और आदतन अपराधियों के खिलाफ पक्षपात शामिल हैं.  CJI डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और जस्टिस  मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि ‘सम्मान के साथ जीने का अधिकार कैदियों को भी प्राप्त है.’


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

बेंच ने कहा, ‘औपनिवेशिक काल के आपराधिक कानून औपनिवेशिक काल के बाद के दौर को भी प्रभावित कर रहे हैं. हम निर्देश देते हैं कि जेल ऑफिसर केंद्र और राज्यों से तीन महीने के भीतर अपने जेल नियमावली और कानूनों में संशोधन करने और उसके समक्ष अनुपालन रिपोर्ट दाखिल की जाए.’


डिसमिस


पीठ ने उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, केरल, महाराष्ट्र, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के जेल नियमावली के कुछ भेदभावपूर्ण प्रावधानों पर गौर किया और उन्हें खारिज कर दिया.


अस्पृश्यता के खिलाफ अधिकार का जिक्र करते हुए पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 17 में कहा गया है कि सभी लोग एकसमान जन्म लेते हैं. उसने कहा, ‘किसी भी व्यक्ति के अस्तित्व, स्पर्श या उपस्थिति से कोई कलंक नहीं जोड़ा जा सकता. अनुच्छेद 17 के माध्यम से, हमारा संविधान प्रत्येक नागरिक की स्थिति की समानता को मजबूत करता है.’


न्यायालय ने एक उदाहरण का हवाला देते हुए कहा कि जाति पदानुक्रम में निचले समुदायों के दोषियों से जेल में अपने पारंपरिक व्यवसाय जारी रखने की अपेक्षा की जाती है और जेल के बाहर के जाति पदानुक्रम को जेल के भीतर भी दोहराया जाता है. न्यायालय ने कहा, ‘ऐसे नियम जो विशेष रूप से या परोक्ष रूप से जाति पहचान के आधार पर कैदियों के बीच भेदभाव करते हैं, वे अवैध वर्गीकरण और मौलिक समानता के उल्लंघन के कारण अनुच्छेद 14 का उल्लंघन हैं.’


उसने कहा कि उदाहरण के लिए, झाड़ू लगाने का काम सौंपने संबंधी नियम, जिसमें यह प्रावधान है कि ‘सफाई कर्मियों का चयन मेहतर या हरि जाति से किया जाएगा’, भी भेदभाव का हिस्सा है.


पत्रकार सुकन्या शांता की एक जनहित याचिका पर 148 पृष्ठों का फैसला सुनाते हुए प्रधान न्यायाधीश ने जेलों के अंदर विचाराधीन या दोषी कैदियों के रजिस्टरों से 'जाति' कॉलम और जाति के किसी भी संदर्भ को हटाने का आदेश भी दिया. सुकन्या शांता ने जेलों में प्रचलित जाति-आधारित भेदभाव पर एक लेख भी लिखा था.


'सम्मान के साथ जीने का अधिकार कैदियों को भी'


पीठ ने फैसले में कहा, ‘सम्मान के साथ जीने का अधिकार कैदियों को भी प्राप्त है. कैदियों को सम्मान प्रदान न करना औपनिवेशिक काल की निशानी है, जब उन्हें मानवीय गुणों से वंचित किया जाता था.’


फैसेले में कहा गया है, ‘संविधान-पूर्व युग के सत्तावादी शासन ने जेलों को न केवल कारावास के स्थान के रूप में देखा, बल्कि वर्चस्व के उपकरण के रूप में भी देखा. इस न्यायालय ने संविधान द्वारा लाए गए बदले हुए कानूनी ढांचे पर ध्यान केंद्रित करते हुए माना है कि कैदियों को भी सम्मान का अधिकार है.’


समानता, सम्मान के साथ जीवन, अस्पृश्यता उन्मूलन और दासता के विरुद्ध अधिकार जैसे मौलिक अधिकारों का उल्लेख करते हुए, फैसले में कहा गया है कि संविधान लागू होने के बाद के समाज में, कानून को अपने सभी नागरिकों को कानून का समान संरक्षण प्रदान करने के लिए सकारात्मक कदम उठाने चाहिए.


फैसले में कहा गया है कि मानव गरिमा एक संवैधानिक मूल्य और संवैधानिक लक्ष्य है. पीठ ने निर्णयों का हवाला देते हुए कहा, ‘मानव गरिमा मानव अस्तित्व का अभिन्न अंग है और दोनों को अलग नहीं किया जा सकता है’ और इसमें ‘यातना या क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार के खिलाफ सुरक्षा का अधिकार’ भी शामिल है.


प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) ने कहा कि गरिमा और जीवन की गुणवत्ता के बीच भी घनिष्ठ संबंध है. उन्होंने कहा कि मानव अस्तित्व की गरिमा तभी पूरी तरह से साकार होती है जब कोई व्यक्ति गुणवत्तापूर्ण जीवन जीता है.


पीठ ने कहा, ‘इन प्रावधानों को संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता), 15 (भेदभाव का निषेध), 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन), 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) और 23 (जबरन श्रम के खिलाफ अधिकार) का उल्लंघन करने के कारण असंवैधानिक घोषित किया जाता है. सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया जाता है कि वे तीन महीने की अवधि के भीतर इस फैसले के अनुसार अपने जेल नियामवली/नियमों को संशोधित करें.’


इसने केंद्र को आदेश दिया कि वह तीन महीने के भीतर मॉडल जेल नियमावली, 2016 और मॉडल जेल और सुधार सेवा अधिनियम, 2023 में जाति आधारित भेदभाव को दूर करने के लिए फैसले के अनुसार आवश्यक बदलाव करे.


उसने कहा, ‘जेल नियमावली/मॉडल जेल नियमावली में 'आदतन अपराधियों' का उल्लेख संबंधित राज्य विधानसभाओं द्वारा अधिनियमित आदतन अपराधी कानून में दी गई परिभाषा के अनुसार होगा, जो भविष्य में ऐसे कानून के खिलाफ किसी भी संवैधानिक चुनौती के अधीन होगा. विचारणीय जेल नियमावली/नियमों में 'आदतन अपराधियों' के अन्य सभी उल्लेख या परिभाषाएं असंवैधानिक घोषित की जाती हैं.’


इसमें कहा गया है कि यदि किसी राज्य में आदतन अपराधी कानून नहीं है, तो केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया जाता है कि वे फैसले के अनुसार जेल नियमावली में आवश्यक बदलाव करें.


उसने कहा, ‘पुलिस को दिशा-निर्देशों का पालन करने का निर्देश दिया जाता है... ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विमुक्त जनजातियों के सदस्यों को मनमाने ढंग से गिरफ्तार न किया जाए.’


शीर्ष अदालत ने जेलों के अंदर जाति-आधारित भेदभाव के मामलों का भी स्वतः संज्ञान लिया और मामले को तीन महीने बाद 'जेलों के अंदर भेदभाव के संबंध में' शीर्षक के साथ सूचीबद्ध किया. उसने राज्यों से फैसले की अनुपालन रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहा.


फैसले में जिला विधिक सेवा प्राधिकरणों (डीएलएसए) और मॉडल जेल नियमावली के तहत गठित विजिटर्स बोर्ड को निर्देश दिया गया है कि वे संयुक्त रूप से नियमित निरीक्षण करें ताकि यह पता लगाया जा सके कि जाति आधारित भेदभाव या इसी तरह की भेदभावपूर्ण प्रथाएं, जैसा कि इस फैसले में बताया गया है, अभी भी जेलों के अंदर हो रही हैं या नहीं.


उसने कहा, ‘DLSA और विजिटर्स बोर्ड अपने निरीक्षण की एक संयुक्त रिपोर्ट SLSA (राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण) को सौंपेंगे, जो एक आम रिपोर्ट तैयार करेगा और इसे NALSA (राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण) को भेजेंगे, जो उपरोक्त स्वत: संज्ञान लेकर शुरू की गई रिट याचिका में इस न्यायालय के समक्ष एक संयुक्त स्थिति रिपोर्ट दाखिल करेगा.’


शीर्ष अदालत ने केंद्र को निर्देश दिया कि वह फैसले की प्रति तीन सप्ताह की अवधि के भीतर सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को प्रसारित करे.


सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केंद्र के 'मॉडल जेल और सुधार सेवा अधिनियम' 2023 के प्रावधानों में जेलों में जाति आधारित भेदभाव पर रोक लगाने का कोई संदर्भ नहीं है.


केंद्रीय गृह मंत्रालय ने विभिन्न हितधारकों के परामर्श से पूर्व के उन ‘औपनिवेशिक कानूनों’ को बदलने के लिए एक मसौदा कानून तैयार किया था, जो ‘पुराने और अप्रचलित पाए गए थे.’


गृह मंत्रालय ने पीठ को बताया कि मॉडल अधिनियम ‘एक व्यापक दस्तावेज है, जो जेल प्रबंधन के सभी प्रासंगिक पहलुओं को कवर करता है, जैसे सुरक्षा, वैज्ञानिक और तकनीकी हस्तक्षेप, कैदियों का पृथक्करण, महिला कैदियों के लिए विशेष प्रावधान, जेल में कैदियों की आपराधिक गतिविधियों के खिलाफ उचित कार्रवाई करना, कैदियों को पैरोल और फरलो देना, उनकी शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण और कौशल विकास आदि.’


प्रधान न्यायाधीश ने अपने फैसले में कहा, ‘मॉडल कानून में जाति-आधारित भेदभाव के निषेध का कोई संदर्भ नहीं है. यह चिंताजनक है क्योंकि यह अधिनियम जेल के प्रभारी अधिकारी को 'जेलों के प्रशासन और प्रबंधन' के लिए 'कैदियों की सेवाओं का उपयोग' करने का अधिकार देता है.’


फैसले में कहा गया है कि 2016 के मॉडल जेल नियमावली में कई प्रावधानों में जेलों में जातिगत भेदभाव के निषेध का उल्लेख है, जबकि 2023 के मॉडल कानून में ‘‘इस तरह के किसी भी उल्लेख से पूरी तरह परहेज किया गया है.’