फिल्मों में छा रहे 5 ट्राइबल महानायक, जानें इनकी कहानी
हजारों सालों से जो वन में रहते थे, उन्हें वनवासी कहा जाता था. आज जानते हैं भारत के इन्हीं 5 महानायकों की कहानी-
धरती आबा यानी बिरसा मुंडा जीते जी बन गए थे भगवान
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहातु गांव में हुआ था, वर्तमान में रांची झारखंड की राजधानी है. उन दिनों ईसाई मिशनरियां अंग्रेजी फौज के पहुंचने से पहले पहुंचा जाया करती थीं और गरीबों, वनवासियों की मदद करके उनको भरोसा जीत लेती थीं. फिर धर्मान्तरण का दौर शुरू करती थीं. बिरसा मुंडा भी शुरू से ही पढ़ने लिखने में तेज थे. उनके पिता सुगना मुंडा से लोगों ने कहा कि इसको जर्मन मिशनरी के स्कूल में पढ़ाओ, लेकिन मिशनरीज के स्कूल में पढ़ने की शर्त हुआ करती थी, पहले आपको ईसाई धर्म अपनाना पड़ेगा. बिरसा का भी नाम बदलकर बिरसा डेविड कर दिया गया. ये छोटा नागपुर इलाका था, जहां 1894 के उस साल में अकाल पड़ा था, लोग परेशान थे. बिरसा को अंग्रेजों से चिढ़ हो चली थी. अकाल के दौरान बिरसा ने पूरे जी जान से अकाल ग्रस्त लोगों की मदद की. जो लोग बीमार थे, उनका अंधविश्वास दूर करते उनका इलाज करवाया. बिरसा का ये स्नेह और समर्पण देखकर लोग दंग रह गए, सभी जंगलवासियों के लिए वो धरती आबा हो गए, यानी धरती के पिता. इधर अंग्रेजों के फॉरेस्ट एक्ट 1882 से सारे जंगलवासी परेशान हो गए थे, उनकी सामूहिक खेती की जमीनों दलालों, जमींदारों को बांट दिया गया था. बिरसा ने इसके खिलाफ ‘उलगूलान’ का नारा दिया यानी जल, जंगल, जमीन के उनके अधिकारों के लिए लड़ाई. बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ एक और नारा दिया, ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’, यानी अपना देश अपना राज. करीब 4 साल तक बिरसा मुंडा की अगुआई में जंगलवासियों ने कई बार अंग्रेजों को धूल चटाई. अंग्रेजी हुक्मराम परेशान हो गए, उस दुर्गम इलाके में बिरसा के गुरिल्ला युद्ध का वो तोड़ नहीं ढूंढ पा रहे थे. लेकिन लालच बुरी बला है, बिरसा के सर पर बड़ा इनाम रख दिया गया, किसी गांव वाले ने बिरसा का सही पता अंग्रेजों तक पहुंचा दिया. जनवरी 1990 में गांव के पास ही डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा को घेर लिया गया, फिर भी 1 महीने तक जंग चलती रही, सैकड़ों लाशें बिरसा के सामने उनको बचाते हुए बिछ गईं, आखिरकार 3 मार्च वो भी गिरफ्तार कर लिए गए. ट्रायल के दौरान ही रांची जेल में उनकी मौत हो गई. लेकिन उनकी मौत ने न जाने कितनों के अंदर क्रांति की ज्वाला जगा दी. आज भी बिरसा मुंडा को लोग भगवान की तरह पूजते हैं. उनके नाम पर न जाने कितने संस्थानों और योजनाओं के नाम हैं, और न जाने कितनी ही भाषाओं में उनके ऊपर फिल्में बन चुकी हैं.
जल, जंगल, जमीन का नारा देना वाले कोमारम भीम
कोमारम भीम उस वक्त 15 साल के थे, हैदराबाद स्टेट में उन दिनों आसफजाही निजाम का राज चलता था. निजाम ने लगभग हर जागीर में अपने जमींदार नियुक्त कर रखे थे. कोमारम भीम को विद्रोह के बीज अपने पिता से विरासत में मिले थे. जंगलवासी हमेशा से जंगल पर अपना अधिकार समझते आए हैं. लेकिन निजाम ने आदिवासियों से कई तरह के कर लेने शुरू कर दिए और कई नए तरह के प्रतिबंध लगा दिए. इसका विरोध कोमारम भीम के पिता ने किया तो उन्हें जान से हाथ धोना पड़ा. कोमारम भीम को बड़ा आघात पहुंचा, उसने अपना गांव छोड़ दिया और परिवार समेत दूसरे गांव चला गया. लेकिन कसम खा ली कि निजाम शाही के खिलाफ जल, जंगल, जमीन और आजादी की जंग अंजाम तक लड़ी जाएगी.
कोमारम ने वनवासी युवाओं का एक दल बना लिया और उन्हें गोरिल्ला छापामार पद्धति से युद्ध का कौशल सिखाने लगा. इधर अब्दुल सत्तार नाम के निजामशाही जागीरदार ने जंगल में वनवासियों के पशुओं के चरने तक पर टैक्स लगा दिया. इतना ही नहीं वनों में वनवासियों के बीच प्रचलित झूम खेती पर भी टैक्स मांगा. जो अनाज वो उगाते थे, उसमें से भी हिस्सा मांगा जाने लगा. आदिवासियों ने कभी भी जंगल की किसी भी चीज पर टैक्स नहीं दिया था, वो हमेशा उस पर अपना अधिकार समझते थे. उनकी कमाई का कोई साधन नहीं था, भूखे मरने की नौबत आ गई. कर न देने पर धर्मपरिवर्तन के लिए लालच और बहू बेटियों को उठाने की धमकियां मिलने लगीं. जागीरदार के सैनिक अक्सर महिलाओं के साथ बदसलूकी करने लगे. ऐसे में कोमारम भीम ने उनके खिलाफ गोरिल्ला वॉर शुरू कर दी, शुरुआत हुई सिद्दीकी नाम के एक जमींदार से. उसे मारकर पेड़ पर लटका दिया गया. भीम ने ऐलान कर दिया कि अब से जल, जंगल और जमीन पर कोई टैक्स नहीं दिया जाएगा. जो भी जमींदार इसे जबरन वसूलने की कोशिश करता, उसका नाम कोमारम भीम के पास पहुंचा दिया जाता और कोमारम उसे अपने तरीके से सजा देता. जमींदारों और निजाम की पुलिस के बीच मौत का खौफ फैल गया. कोमराम आदिवासियों के रॉबिनहुड की तरह मशहूर होने लगा. एक एक करके न जाने कितने जमींदार और पुलिसवालों को मौत के घाट उतार दिया गया. इतनी बड़ी निजाम फौज से उनके ही इलाकों में 12 साल तक टकराना आसान नहीं था, कोमारम भीम की बेटी का अपहरण कर लिया गया. उसको धर्मान्तरित करके मुसलमान बना दिया गया. एक दिन एक गद्दार की सूचना पर 9 अक्टूबर 1940 को चांदनी रात के दिन बिना मशाल जलाए निजाम की फौज ने उस पर हमला बोल दिया, मरते दम तक भीम ने निजाम की फौज से लोहा लिया, लेकिन फिर बच नहीं पाए. भीम की मौत के बाद पूरे जंगल में, हैदराबाद रियासत में हंगामा हो गया, भीम की लोकप्रियता शिखर पर थी. हैदराबाद रियासत की आसफशाही निजाम के शासन से आजादी के लडने वालों के लिए कोमारम भीम एक बड़ा नाम था. उनके जाते ही कई तरह के विद्रोह शुरू हो गए. निजाम के पसीने छूट गए, उसको इतने बड़े विद्रोह का अनुमान नहीं था. उसने उनकी मौत के फौरन बाद लंदन यूनीवर्सिटी में एंथ्रोपलॉजी के ऑस्ट्रियाई प्रोफेसर क्रिस्टोफ को आदिलाबाद इलाके में वनवासियों की समस्या की स्टडी करने भेजा. वो उन्हीं के बीच रहने लगा, उसने गोंड आदिवसियों की भाषा सीखी, उनकी समस्याएं समझीं, इतनी ही नहीं उनको लेकर एक किताब भी लिख डाली.
निजाम ने भी उसकी रिपोर्ट के बाद कई रियायतें दीं, आदिवासियों के कई मामलों से खुद को दूर कर लिया. इधर सरकार ने भी आजादी के बाद आदिलाबाद जिले में 400 करोड़ की लागत से आदिवासियों के लिए 4500 एकड़ पर एक प्रोजेक्ट शुरू किया और एक बांध बनाया. आज भी जब भी हैदराबाद की निजाम के शासन से मुक्ति की बात होती है तो विद्रोह की पहली आवाज के तौर पर तो कोमारम भीम को याद किया ही जाता है, पूरी दुनियां को जल, जंगल और जमीन के अधिकारों के प्रति जागरूक करने और ये नारा अमर करने में भी कोमारम भीम का योगदान कोई नकार नहीं सकता. हाल ही में ‘बाहुबली’ के डायरेक्टर राजमौली ने अपनी फिल्म ‘आरआरआर’ का ऐलान किया है, जो दो वनवासी महानायकों की कहानी होगा- पहले कोमारम भीम, दूसरे अल्लूरी सीताराम राजू.
गांधीवादी अल्लूरी सीताराम राजू ने भी वनवासियों के लिए उठा ली थी बंदूक
1882 के जिस फॉरेस्ट एक्ट से बिरसा मुंडा परेशान रहे, उसी के खिलाफ बाद में खड़े हो गए थे अल्लूरी सीताराम राजू. राजू मद्रास प्रेसीडेंसी में 1897-98 में पैदा हुए थे, आज वो इलाका आंध्र प्रदेश में आता है. मद्रास फॉरेस्ट एक्ट 1882 वनवासियों की पारम्परिक खेती की पद्धति पर रोक लगाता था. पहले जहां वो एक जगह खेती करने के बाद आगे किसी जगह पर खेती करते थे (पोदु खेती), अब ये सुविधा नहीं थी, उन्हें उसी जमीन पर खेती करने की नई शर्त आ गई थी. इसके लिए वनवासी तैयार नहीं थे. सो अक्सर विरोध होता था, लेकिन कोई कद्दावर नेता उनके पास नहीं था. अल्लूरी सीताराम राजू उन दिनों 23-24 के नौजवान थे, शुरू में गांधीजी के 'असहयोग आंदोलन' से जुड़ गए, उनको लगा कि ये उनके मामले में भी अंग्रेजों को झुकने पर मजबूर कर देगा. लेकिन उनके शांतिपूर्ण आंदोलन से अंग्रेजों को कोई असर नहीं पड़ा. तब राजू ने अपनी रणनीति बदली और गांधीवाद से इतर रास्ता अपनाया.
ईस्ट गोदावरी व विशाखापत्तनम के तटीय इलाकों में पुलिस स्टेशनों पर रेड मारना शुरू कर दिया. सारे वनवासी खुलकर उनके साथ थे. उन्होंने कई ब्रिटिश पुलिस ऑफिसर्स को मार गिराया, तमाम हथियार और गोला बारूद छीनकर एक पूरी फोर्स तैयार कर डाली. आपके लिए ये जानना दिलचस्प होगा कि राजू 18 साल की उम्र में तो संन्यासी बनकर घर ही छोड़ गए थे. उनके चाचा तहसीलदार थे. अल्लूरी भी इस आंदोलन के लिए कॉलेज की अपनी पढ़ाई छोड़कर आए थे. गांधीवादी आंदोलन से जुड़ने के साथ ही वो तमाम सरकारी व्यवस्था के साथ असहयोग करने लगे थे. कोई भी आदिवासी कोर्ट, कचहरी के चक्कर नहीं काटता था, राजू सबकी पंचायत कोर्ट लगाते थे. धीरे धीरे वो हथियार और पैसा भी इकट्ठा करने लगे. तब अंग्रेजों को भी लगने लगा कि राजू से केवल स्पेशल पुलिस फोर्स के जरिए ही निपटा जा सकता है, वो भी गोरिल्ला वॉरफेयर में ट्रेंड पुलिस से. मालाबार पुलिस का स्पेशल दस्ता तैयार किया गया. उसको ये सब ट्रेनिंग दी गई ताकि राजू को परास्त किया जा सके. आखिरकार 7 मई 1924 को राजू को अंग्रेजी पुलिस दस्ते ने चिंतापल्लै के जंगलों में घेर लिया. राजू को पेड़ से बांधकर वहीं गोली मार दी गई.
वनवासियों को संविधान में अधिकार और भारत को पहला ओलम्पिक हॉकी गोल्ड दिलाने वाले नायक
जयपाल सिंह मुंडा की इस लड़ाई को ‘हॉकी से हक की लड़ाई’ की यात्रा कहा जाता है. कोई नहीं जानता था कि एक दिन ओलम्पिक में जाने वाली पहली भारतीय टीम का कप्तान चुना जाने वाला, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की हॉकी टीम का सदस्य, भारत को ओलम्पिक का पहला हॉकी गोल्ड दिलाने वाला नायक, कभी देश की सबसे बड़ी सभा में आदिवासियों की हक की आवाज बन जाएगा. जी हां, आज जो देश में आदिवासियों को तमाम तरह के अधिकार, नौकरियों और प्रतिनधित्व में आरक्षण, जंगल की जमीन से जुड़े अधिकार आदि मिले हुए हैं, तो उनकी वजह ये गुमनाम नायक हैं. ऐसे में जबकि उत्तर पूर्व के आदिवासी नागा उन दिनों भारत में शामिल होना ही नहीं चाहते थे, बिहार के छोटा नागपुर में पैदा हुआ ये आदिवासी युवा भारत में ही आदिवासियों का भविष्य बेहतर करना चाहता था. आदिवासी परिवार में पैदा हुए प्रमोद पाहन का नाम बाद में जयपाल सिंह मुंडा कर दिया गया, क्रिश्चियन मिशनरीज के सम्पर्क में आया तो उसे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के सेंट जोंस कॉलेज भेज दिया गया. वहां से उसने इकोनॉमिक्स ऑनर्स से ग्रेजुएशन किया. इसी दौरान वो डिबेट्स और हॉकी में एक्टिव हुआ और ऑक्सफोर्ड की हॉकी टीम में जयपाल को चुन लिया गया.
इसी दौरान जयपाल ने उस वक्त की सिविल सर्विस परीक्षा के लिए टेस्ट दिया और पास करके आईसीएस प्रोबेशनरी अधिकारी बन गया. जिसको दो साल ऑक्सफोर्ड में ट्रेनिंग लेनी थी. क्रिश्चियन मिशनरियों ने उसे अपने अभियान में लगाना चाहा लेकिन वो तो उसने खुद को आदिवासियों के लिए समर्पित कर दिया. ये 1928 की बात है, अंग्रेजी वायसराय ने एम्सटर्डम ओलम्पिक के लिए भारतीय हॉकी टीम भेजने का मन बनाया. तो कप्तान के तौर पर ऑक्सफोर्ड में पढ़ रहे जयपाल सिंह मुंडा को कप्तान चुन लिया गया. जयपाल सिंह की कप्तानी में भारतीय टीम ने 1928 के ओलम्पिक में 17 लीग मैच खेले और आप जानकर हैरत में पड़ जाएंगे कि इनमें से 16 मैच भारत की टीम ने जीते और 1 ड्रॉ हुआ और भारत सेमीफाइनल में पहुंच गया. जयपाल मुंडा शुरू से ही स्वाभिमानी और विद्रोही भाव के थे. किसी बात पर टीम के अंग्रेज मैनेजर से बिगड़ गई. बीच ओलम्पिक में जयपाल ने टीम छोड़ दी और वापस चले आए. हालांकि भारत ने फायनल जीत लिया और गोल्ड भारत के हिस्से ही आया. लेकिन फिर जयपाल को टीम में अगले ओलम्पिक में नहीं लिया गया. बावजूद इसके खुद उस वक्त के वायसराय ने जयपाल को तारीफ भरा लैटर लिखा.
दिक्कत ये हो गई कि वो आईसीएस सर्विस में वापस लौटे तो आईसीएस अधिकारियों ने फिर से उन्हें हॉकी खेलने में जाया की एक साल की ट्रेनिंग करने को कहा. इंटरव्यू में सबसे ज्यादा नंबर आने के बावजूद जयपाल को ये अपमान लगा, उन्होंने नाराज होकर उस समय भारत सरकार की सबसे प्रतिष्ठित नौकरी छोड़ दी और वर्मा शैल में एक्जीक्यूटिव हो गए. कोलकाता में नौकरी करने के दौरान उन्होंने कांग्रेस के पहले और तीसरे अध्यक्ष व्योमेश चंद्र बनर्जी की नातिन तारा मजमूदार से शादी कर ली. उसके बाद वो गोल्ड कोस्ट, घाना में कॉमर्स टीचिंग करने चले गए, वहां से रायपुर के राजकुमार कॉलेज के प्रिसिंपल होकर आ गए. लेकिन वहां उनकी आदिवासी पहचान के चलते बड़े घर के बेटों ने विरोध किया तो उसके बाद वो बीकानेर रियासत में रेवेन्यू कमिशनर के पद पर चले गए, रियासत ने उनका विदेशी तजुर्बा देखकर विदेश सचिव की नौकरी दे दी. तब तक जयपाल को ये लगने लगा था कि न तो वो देश के लिए कुछ कर पा रहे हैं और ना अपने आदिवासी भाइयों के लिए. उन्होंने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से बिहार में एजुकेशन के लिए कुछ करने को कहा, लेकिन बात नहीं बनी तो उनका मन राजनीति की तरफ मुड़ने लगा. हालांकि बिहार के गर्वनर मॉरिस हैलेट ने उन्हें बिहार काउंसिल का सदस्य मनोनीत करने का ऑफर दिया, लेकिन उन्होंने कुबूल नहीं किया. लेकिन रॉबर्ट रसेल जो बिहार के चीफ सेक्रेट्री थे के सुझाव पर उन्होंने रांची पहुंचकर आदिवासियों के लिए लड़ने का फैसला कर लिया. जयपाल सिंह ने बनाई अदिवासी महासभा, जिसका नाम बदलकर बाद में ‘झारखंड पार्टी’ कर दिया. 1952 में बिहार विधानसभा में इस पार्टी ने 32 सीटें जीती थीं. इतिहास में अगर किसी ने सबसे पहले अलग झारखंड की मांग की, उसके नाम पर पार्टी बनाई तो वो जयपाल सिंह मुंडा थे. देश के उस वक्त के नेताओं ने भी जयपाल की बातों की गंभीरता और उपेक्षित आदिवासी समाज के दुख को समझा और तय किया गया कि ऐसे 400 समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे दिया जाए. इनकी कुल आबादी देश की आबादी का 7 फीसदी थी. उनको विधायिकाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षण की बात मान ली गई और संविधान का पांचवा पूरा भाग आदिवासियों के नाम ही समर्पित कर दिया गया. कई और प्रावधानों का ऐलान भी किया गया, मसलन महाजनी प्रथा पर रोक, दीकू यानी बाहरी आदमियों पर आदिवासी इलाकों में जमीनें खरीदने पर रोक, आदिवासी सलाहकार परिषद बनाने का ऐलान आदि शामिल हैं.
नागाओं की रानी जिन्हें मिला था पद्मभूषण
नागाओं की रानी के तौर पर जाना जाता है रानी गैडिन्ल्यू को, वो ना केवल राजनीतिक क्षेत्र में बल्कि आध्यात्मिक क्षेत्र में भी नागाओं की नेता के तौर पर उभरीं, ब्रिटिश शासन से जमकर लोहा लिया. गैडिन्ल्यू का जन्म मणिपुर के एक गांव में हुआ था. 13 साल की उम्र में ही वो अपने कजिन और नागा नेता जादोनांग के साथ जुड़कर क्रांतिकारी बन गई थीं, जो अंग्रेजों के खिलाफ एक धार्मिक आंदोलन हरेरका आंदोलन चला रहे थे. धीरे-धीरे वो आंदोलन एक राजनैतिक आंदोलन में तब्दील हो गया. जादोनांग अपने मकसद में कामयाब हो पाते, उससे पहले ही 29 अगस्त 1931 को अंग्रेजों ने उन्हें पकड़कर फांसी पर लटका दिया. अब आंदोलन की कमान रानी गैडिन्ल्यू के हाथों में आ गई. उस वक्त उनकी उम्र केवल 16 साल थी. लेकिन पिछले 3 साल में वो काफी परिपक्व हो चुकी थीं. जब गांधीजी ने 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' के तहत कर 'रोको' का प्रस्ताव पारित किया तो रानी ने भी कर न देने का अभियान चलाया. उसके बाद उन्होंने सभी नागा कबीलों को एक मंच पर लाने में कामयाबी हासिल कर ली. अंग्रेजों के सामने खुलकर खड़ा होने की उनकी हिम्मत देखकर सारे नागा उन्हें देवी मानने लगे थे. उनके साथ अब 10000 की सशस्त्र फौज हो चली थी. रानी ने अंग्रेजी फौज के खिलाफ छापामार पद्धति से युद्ध करने शुरू कर दिए, अंग्रेज परेशान हो चले थे. इधऱ रानी का इरादा अपना किला बनाने का था, लेकिन वो कामयाब हो पातीं उससे पहले ही अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. 1932 में उनको जेल भेज दिया गया. 14-15 साल तक वो जेल में रहीं, 1947 में देश आजाद होने पर ही वो जेल से बाहर आ पाईं. उनको इसलिए भी याद किया जाता है कि नागा कबीलों के बीच ईसाई मिशनरियों का प्रभाव रोकने में उन्होंने काफी काम किया. 1982 में उन्हें पद्मभूषण अवॉर्ड दिया गया.