KBC 5 के विनर सुशील कुमार कहां हैं और क्या कर रहे हैं? खुद सुनाई अपनी जिंदगी की कहानी

सुशील कुमार (Sushil Kumar) ने अपने पोस्ट में लिखा है कि 2015-2016 मेरे जीवन का सबसे चुनौतीपूर्ण समय था.

प्रतीक शेखर Sun, 13 Sep 2020-9:30 am,
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सबसे चुनौतीपूर्ण समय था 2015-16

उन्होंने अपने पोस्ट में लिखा है कि 2015-2016 मेरे जीवन का सबसे चुनौतीपूर्ण समय था. लोकल सेलेब्रिटी होने के कारण, महीने में दस से पंद्रह दिन बिहार में कहीं न कहीं कार्यक्रम लगा ही रहता था. इसलिए पढ़ाई-लिखाई धीरे-धीरे दूर जाती रही. उसके साथ उस समय मीडिया को लेकर मैं बहुत ज्यादा सीरियस रहा करता था और मीडिया भी कुछ-कुछ दिन पर पूछ देती थी कि आप क्या कर रहे हैं. इसको लेकर मैं बिना अनुभव के कभी ये बिजनेस, तो कभी वो बिजनेस करता था ताकि मैं मीडिया में बता सकूं कि मैं बेकार नहीं हूं, जिसका परिणाम ये होता था कि वो बिजनेस कुछ दिन बाद डूब जाता था.

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बन गए थे दानवीर

इसके साथ 'केबीसी' के बाद मैं दानवीर बन गया था और गुप्त दान का चस्का लग गया था. महीने में लगभग 50 हजार से ज्यादा ऐसे ही कार्यों में चला जाता था. इस कारण कुछ चालू टाइप के लोग भी जुड़ गए थे और हम गाहे-बगाहे खूब ठगा भी जाते थे, जो दान करने के बहुत दिन बाद पता चलता था. 

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पत्नी से खराब हो रहे थे संबंध

उन्होंने अपने पोस्ट में आगे लिखा कि पत्नी के साथ भी संबंध धीरे-धीरे खराब होते जा रहे थे. वो अक्सर कहा करती थी कि आपको सही-गलत लोगों की पहचान नहीं है और भविष्य की कोई चिंता नहीं है. ये सब बात सुनकर मुझे लगता था कि मुझे नहीं समझ पा रही है. इस बात पर खूब झड़गा हो जाया करता था.

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दिल्ली में शुरू किया बिजनेस

हालांकि, इसके साथ कुछ अच्छी चीजें भी हो रही थी कि दिल्ली में मैंने कुछ कार लेकर अपने एक मित्र के साथ चलवाने लगा था, जिसके कारण मुझे लगभग हर महीने कुछ दिनों दिल्ली आना पड़ता था. इसी क्रम में मेरा परिचय कुछ जामिया मिलिया में मीडिया की पढ़ाई कर रहे लड़कों से हुआ फिर आईआईएमसी में पढ़ाई कर रहे लड़को से... फिर उनके सीनियर, फिर जेएनयू में रिसर्च कर रहे लड़के, कुछ थियेटर आर्टिस्ट आदि से परिचय हुआ, जब ये लोग किसी विषय पर बात करते थे, तो लगता था कि अरे! मैं तो कुएं का मेढ़क हूं. मैं तो बहुत चीजों के बारे में कुछ नहीं जानता.

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जब लगी नशे की लत

अब इन सब चीजों के साथ एक लत भी साथ जुड़ गया शराब और सिगरेट, जब इन लोगों के साथ बैठना ही होता था दारू और सिगरेट के साथ. एक समय ऐसा आया कि अगर सात दिन रुक गया, तो सातों दिन इस तरह के सात ग्रुप के साथ अलग-अलग बैठकी हो जाती थी. इन लोगों को सुनना बहुत अच्छा लगता था चूंकि ये लोग जो भी बात करते थे मेरे लिए सब नया-नया लगता था. बाद में इन लोगों की संगति का ये असर हुआ कि मीडिया को लेकर जो मैं बहुत ज्यादा सीरियस रहा करता था, वो सीरियसनेस धीरे-धीरे कम हो गई.

जब भी घर पर रहते थे, तो रोज एक सिनेमा देखते थे. हमारे यहां सिनेमा डाउनलोड की दुकान होती है, जो पांच से दस रुपये में हॉलीवुड का कोई भी सिनेमा हिंदी में डब या कोई भी हिंदी फिल्म उपलब्ध करा देती हैं. (हालांकि नेटफ्लिक्स आदि आने के बाद उन सैकड़ों का रोजगार अब बंद हो गया)

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कैसे आई कंगाली की खबर (ये थोड़ा फिल्मी लगेगा)

उस रात फिल्म 'प्यासा' देख रहा था और उस फिल्म का क्लाइमेक्स चल रहा था, जिसमें माला सिन्हा से गुरुदत्त साहब कर रहे हैं कि मैं वो विजय नही हूं, वो विजय मर चुका. उसी वक्त पत्नी कमरे में आई और चिल्लाने लगी कि एक ही फिल्म बार-बार देखने से आप पागल हो जाइएगा और यही देखना है, तो मेरे रूम में मत रहिए जाइए बाहर. इस बात से हमको दुख इसलिए हुआ कि लगभग एक माह से बातचीत बंद थी और बोला भी ऐसे की आगे भी बात करने की हिम्मत न रही और लैपटॉप को बंद किए और मुहल्ले में चुपचाप टहलने लगे.

अभी टहल ही रहे थे, तभी एक अंग्रेजी अखबार के पत्रकार महोदय का फोन आया और कुछ देर तक मैंने ठीक ठाक बात की. बाद में उन्होंने कुछ ऐसा पूछा, जिससे मुझे चिढ़ हो गई और मैंने कह दिया कि मेरे सभी पैसे खत्म हो गए और दो गाय पाले हुए हैं. उसी का दूध बेंचकर गुजारा करते हैं. उसके बाद जो उस न्यूज का असर हुआ, उससे आप सभी तो वाकिफ होंगे ही.

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फिल्म निदेशक बनने का सपना

उस खबर ने अपना असर दिखाया जितने चालू टाइप के लोग थे. वे अब कन्नी काटने लगे. मुझे लोगों ने अब कार्यक्रमों में बुलाना बंद कर दिया और तब मुझे समय मिला कि अब मुझे क्या करना चाहिए. उस समय खूब सिनेमा देखते थे. लगभग सभी नेशनल अवार्ड विनिंग फिल्म, ऑस्कर विनिंग फिल्म, ऋत्विक घटक और सत्यजीत रॉय की फिल्म देख चुके थे और मन में फिल्म निदेशक बनने का सपना कुलबुलाने लगा था.

इसी बीच एक दिन पत्नी से खूब झगड़ा हो गया और वो अपने मायके चली गई बात तलाक लेने तक पहुंच गई. तब मुझे ये एहसास हुआ कि अगर रिश्ता बचाना है, तो मुझे बाहर जाना होगा और फिल्म निदेशक बनने का सपना लेकर चुपचाप बिल्कुल नए परिचय के साथ मैं आ गया. अपने एक परिचित प्रोड्यूसर मित्र से बात करके जब मैंने अपनी बात कही, तो उन्होंने फिल्म संबंधी कुछ टेक्निकल बातें पूछी, जिसको मैं नहीं बता पाया, तो उन्होंने कहा कि कुछ दिन टीवी सीरियल में कर लीजिए, बाद में हम किसी फिल्म डायरेक्टर के पास रखवा देंगे.

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मुंबई का सफर

फिर एक बड़े प्रोडक्शन हाउस में आकर काम करने लगा. वहां पर कहानी, स्क्रीन प्ले, डायलॉग कॉपी, प्रॉप कॉस्टयूम, कंटीन्यूटी और न जाने क्या करने देखने समझने का मौका मिला. उसके बाद मेरा मन वहां से बेचैन होने लगा. वहां पर बस तीन ही जगह आंगन, किचन और बेडरूम ज्यादातर शूट होता था और चाहकर भी मन नहीं लगा पाते थे. हम तो मुम्बई फिल्म निर्देशक बनने का सपना लेकर आए थे और एक दिन वो भी छोड़कर अपने एक परिचित गीतकार मित्र के साथ उसके रूम में रहने लगा.

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बन गए टीचर

दिन भर लैपटॉप पर सिनेमा देखते रहते और दिल्ली पुस्तक मेला से जो एक सूटकेस भर के किताब लाए थे, उन किताबों को पढ़ते रहते. लगभग 6 महीने लगातार यही करता रहा और दिन भर में एक डब्बा सिगरेट खत्म कर देते थे, पूरा कमरा हमेशा धुंआ से भरा रहता था. दिन भर अकेले ही रहने से और पढ़ने लिखने से मुझे खुद के अंदर निष्पक्षता से झांकने का मौका मिला और मुझे ये एहसास हुआ कि मैं मुंबई में कोई डायरेक्टर बनने नहीं आया हूं. मैं एक भगोड़ा हूं, जो सच्चाई से भाग रहा है. असली खुशी अपने मन का काम करने में है. घमंड को कभी शांत नहीं किया जा सकता. बड़े होने से हजार गुना ठीक है अच्छा इंसान होना. खुशियां छोटी-छोटी चीजों में छुपी होती है. जितना हो सके देश समाज का भला करना, जिसकी शुरुआत अपने घर/गांव से की जानी चाहिए. हालांकि इसी दौरान मैंने तीन कहानी लिखी, जिसमें से एक कहानी एक प्रोडक्शन हाउस को पसंद भी आई और उसके लिए मुझे लगभग 20 हजार रुपये भी मिले.

(हालांकि पैसा देते वक्त मुझसे कहा गया कि इस फिल्म का आईडिया बहुत अच्छा है. कहानी पर काफी काम करना पड़ेगा, क्लाइमेक्स भी ठीक नहीं है आदि आदि... और इसके लिए आपको बहुत ज्यादा पैसा हमलोगों ने पे कर दिया है.)

बन गए टीचर इसके बाद मैं मुंबई से घर आ गया और टीचर की तैयारी की और पास भी हो गया. साथ ही अब पर्यावरण से संबंधित बहुत सारे कार्य करता हूं, जिसके कारण मुझे एक अजीब तरह की शांति का एहसास होता है. साथ ही अंतिम बार मैंने शराब मार्च 2016 में पी थी, उसके बाद पिछले साल सिगरेट भी खुद ब खुद छूट गया. 

अब तो जीवन मे हमेशा एक नया उत्साह महसूस होता है और बस ईश्वर से प्रार्थना है कि जीवन भर मुझे ऐसे ही पर्यावरण की सेवा करने का मौका मिलता रहे इसी में मुझे जीवन का सच्चा आनंद मिलता है. बस यही सोंचते हैं कि जीवन की जरूरतें जितनी कम हो सके रखनी चाहिए, बस इतना ही कमाना है कि जिससे जरूरतें वो पूरी हो जाए और बाकी बचे समय में पर्यावरण के लिए ऐसे ही छोटे स्तर पर कुछ-कुछ करते रहना है.

(फोटो साभारः सारी तस्वीरें सुशील कुमार के फेसबुक अकाउंट से ली गई हैं)

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