Himachal Pradesh PCM Amendment Bill: कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में 31 साल की एक ट्रेनी लेडी डॉक्टर की रेप और हत्या के बाद पूरे देश में महिला सुरक्षा पर बहस के बीच हिमाचल प्रदेश सरकार ने एक बड़ा कदम उठाया है. हिमाचल प्रदेश विधानसभा ने मंगलवार को महिलाओं के लिए विवाह की न्यूनतम उम्र 18 से बढ़ाकर 21 वर्ष करने के लिए एक विधेयक पारित किया. इसकी तुलना उत्तराखंड में लागू यूसीसी कानून से की जाने लगी है.


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बाल विवाह निषेध (हिमाचल प्रदेश संशोधन) विधेयक, 2024 ध्वनि मत से पास


हिमाचल विधानसभा में बाल विवाह निषेध (हिमाचल प्रदेश संशोधन) विधेयक, 2024 ध्वनि मत से पारित हो गया. इस विधेयक ने साल 2006 में संसद द्वारा पारित बाल विवाह निषेध (पीसीएम) अधिनियम में संशोधन किया है. आइए, जानते हैं कि हिमाचल के इस विधेयक में देश की पीसीएम अधिनियम में कौन से संशोधन पेश किए गए हैं? साथ ही इसका जवाब भी तलाशते हैं कि केंद्रीय कानून में इस विधेयक के संशोधन कैसे लागू होंगे?


हिमाचल प्रदेश विधानसभा ने विधेयक क्यों पारित किया?


स्वास्थ्य, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री धनी राम शांडिल ने विधानसभा में विधेयक पेश करते हुए कहा कि महिलाओं को अवसर प्रदान करने के लिए विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाना आवश्यक है. उन्होंने कहा, "कुछ लड़कियों की अभी भी कम उम्र में शादी हो जाती है, जिससे उनकी शिक्षा और जीवन में आगे बढ़ने की क्षमता में बाधा आती है... इसके अलावा, कई महिलाएं कम उम्र में शादी के कारण अपने करियर में सफलता हासिल नहीं कर पाती हैं."


मंत्री ने यह भी बताया कि कम उम्र में शादी और मातृत्व अक्सर महिलाओं के स्वास्थ्य पर गंभीर असर डालता है. विधेयक के साथ जोड़े गए 'उद्देश्यों और कारणों का विवरण' के मुताबिक, "कम उम्र में विवाह...न केवल महिलाओं के करियर की प्रगति में बल्कि उनके शारीरिक विकास में भी बाधक के रूप में कार्य करता है."


विधेयक में पीसीएम अधिनियम में कौन से संशोधन पेश किए गए हैं?


पीसीएम अधिनियम की धारा 2 (ए) इक्कीस वर्ष की उम्र पूरी नहीं करने वाले पुरुष और अठारह साल की उम्र पूरी नहीं की हुई महिलाओं को एक "बच्चे" के रूप में परिभाषित करती है. हिमाचल का विधेयक "पुरुषों" और "महिलाओं" के बीच उम्र के आधार पर इस अंतर को समाप्त करता है. यह "बच्चे" को "एक पुरुष या महिला जिसने इक्कीस वर्ष की उम् पूरी नहीं की है" के रूप में परिभाषित करता है.


विधेयक पीसीएम अधिनियम की धारा 2 (बी) में भी संशोधन करता है, जो "बाल विवाह" को "एक ऐसे विवाह" के रूप में परिभाषित करता है, जिसमें अनुबंध करने वाला कोई भी एक पक्ष बच्चा है. विधेयक में एक खंड जोड़ा गया है जो इसे "किसी भी अन्य कानून में निहित किसी भी विपरीत या असंगत ... जिसमें पक्षों को नियंत्रित करने वाले किसी भी रीति-रिवाज या उपयोग या अभ्यास" से ऊपर बताता है.


हिमाचल प्रदेश में सभी महिलाओं पर लागू होगी नई उम्र सीमा


इसका मतलब यह है कि महिलाओं के लिए शादी की नई न्यूनतम उम्र सीमा हिमाचल प्रदेश में सभी पर लागू होगी, भले ही कोई अन्य कानून कुछ भी कहता हो, या भले ही शादी करने वाले व्यक्तियों की धार्मिक या सांस्कृतिक प्रथाएं कानूनी नाबालिगों को शादी करने की अनुमति देती हों. विधेयक पीसीएम अधिनियम में धारा 18ए पेश करता है, जो पूरे केंद्रीय कानून और उसके प्रावधानों पर समान असर डालता है.


याचिका दायर करने के लिए महिलाओं को मिला ज्यादा समय 


विधेयक विवाह को रद्द करने के लिए याचिका दायर करने की समय अवधि को भी बढ़ाता है. पीसीएम अधिनियम की धारा 3 के तहत, "विवाह के समय अनुबंध करने वाला पक्ष अगर बच्चा था" तो वयस्क होने के दो साल के भीतर विवाह को रद्द करने के लिए याचिका दायर कर सकता है. यानी महिलाओं के लिए 20 वर्ष और पुरुषों के लिए 23 वर्ष की उम्र से पहले ऐसा करने का कानूनी अधिकार है. 


विधेयक इस अवधि को बढ़ाकर पांच वर्ष कर देता है, जिससे महिलाओं और पुरुषों दोनों को 23 वर्ष की उम्र से पहले विवाह को रद्द करने के लिए याचिका दायर करने की अनुमति मिलती है. क्योंकि इसमें विवाह के लिए न्यूनतम उम्र 21 वर्ष वयस्क होने की उम्र 18 वर्ष से अधिक है.


पीसीएम अधिनियम में विधेयक के संशोधन कैसे लागू होंगे?


समवर्ती सूची या संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत सूची III - में उन विषयों की एक सूची शामिल है जिन पर केंद्र और राज्य सरकारें दोनों कानून पारित कर सकती हैं. समवर्ती सूची की प्रविष्टि 5 में "विवाह और तलाक" और ''शिशु और अवयस्क'' सहित कई विषय शामिल हैं. इस संविधान के प्रारंभ होने से ठीक पहले न्यायिक कार्यवाही में सभी मामले उनके व्यक्तिगत कानून के अधीन थे. यह केंद्र और राज्यों दोनों को बाल विवाह को रोकने के लिए कानून बनाने की इजाजत देता है.


संविधान के मुताबिक राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास अधिकार


आमतौर पर, संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत, किसी राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को उस राज्य के राज्यपाल को उनकी सहमति के लिए सौंपा जाएगा. इसके बाद राज्यपाल घोषणा कर सकते हैं कि वह विधेयक को कानून बनाने पर सहमत हैं. या फिर वह विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटा सकते हैं, या राष्ट्रपति द्वारा विचार के लिए इसे "रिजर्व" कर सकते हैं. इसके बाद राष्ट्रपति पास विशेषाधिकार है कि वह विधेयक पर सहमति देते हैं या अनुमति रोकते हैं, या राज्यपाल को इसे पुनर्विचार के लिए वापस भेजने का निर्देश देते हैं.


केंद्रीय कानून का विरोधाभासी राज्य कानून संवैधानिक तौर पर शून्य


हालांकि, हिमाचल प्रदेश द्वारा पारित विधेयक महिलाओं के लिए एक अलग विवाह आयु की शुरुआत करके पीसीएम अधिनियम में संशोधन करता है, जिससे यह संसद द्वारा पारित अधिनियम के साथ असंगत हो जाता है. संविधान के अनुच्छेद 254(1) के तहत, अगर राज्य विधायिका समवर्ती सूची के किसी विषय से संबंधित कानून बनाती है और वह कानून केंद्रीय कानून के साथ प्रतिकूल, असंगत या विरोधाभासी है, तो राज्य कानून का प्रतिकूल भाग "शून्य" हो जाएगा.


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राज्य में कैसे लागू हो सकता है केंद्र से अलग प्रावधानों वाला कानून


इसका अपवाद अनुच्छेद 254(2) के तहत प्रदान किया गया है. इसके तहत अगर विचाराधीन विधेयक संसद द्वारा पहले बनाए गए या मौजूदा कानून के प्रतिकूल है, तो विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए और अनुच्छेद 201 के अनुसार उनकी सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता है. केवल तभी राज्य कानून में प्रतिकूल प्रावधान वैध हो सकता है. इसलिए, हिमाचल प्रदेश विधेयक को लागू करने के लिए राज्यपाल शिव प्रताप शुक्ला को विधेयक को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के विचार के लिए आरक्षित करना होगा. इसके बाद राष्ट्रपति को विधेयक पर अपनी सहमति देने का निर्णय लेना होगा. 


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उत्तराखंड के समान नागरिक संहिता (यूसीसी) कानून जैसा मामला


इस प्रक्रिया को उत्तराखंड के समान नागरिक संहिता (यूसीसी) विधेयक के मामले में कार्रवाई के दौरान देखा गया था. यह कानून उत्तराखंड में रहने वाले सभी लोगों के लिए विवाह, तलाक जैसे विभिन्न विषयों के लिए एक समान प्रावधान करता है. ये विषय पहले व्यक्तिगत कानूनों (संसद द्वारा अधिनियमित) और निवासियों के रीति-रिवाजों द्वारा उनकी धार्मिक या सांस्कृतिक पहचान के आधार पर नियंत्रित होते थे. फरवरी, 2024 में उत्तराखंड विधानसभा में पारित विधेयक राष्ट्रपति मुर्मू द्वारा मार्च में अपनी सहमति देने के बाद ही कानून बन गया था.


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