विकास चौधरी, नई दिल्लीः गोवा में आय़ोजित IFFI (International Film Festival Of India) देश का सबसे बड़ा फिल्म फेस्टिवल.  जहां दुनिया भर की अलग-अलग भाषाओं में बनी कुछ चुनिंदा फिल्मों को जगह दी जाती हो. इस बार इस फेस्टिवल में 65 से ज्यादा देशों में से हिंदी कैटेगरी में सिर्फ 2 फिल्मों का चयन हुआ. एक थी डायरेक्टर सुजीत सरकार की ऑक्टोबर और दूसरी है बिहार की पृष्ठभूमि में मुसहर जाति की महिला के संघर्ष पर बुनी गयी फिल्म "भोर". हज़ारों फिल्मों को फिल्मों को पछाड़ते हुए भोर ने IFFI में जगह बना ली.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING


फिल्म डायरेक्टर कामाख्या नारायण सिंह ने बॉलीवुड में मुसहर जाति के दर्द औऱ संघर्ष को पहली बार बड़े पर्दे पर फिल्माया है
"भोर" एक संघर्ष और सपनों को पूरा करने की कहानी है. इस फिल्म को बनाने की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. पूरी तरह से रियल सेट पर शूट की गयी है. फिल्म की पूरी टीम महीनों तक बिहार के नालंदा जिले के पैंगरी गांव में रही. यहीं मुसहरों की बस्ती में रहकर कलाकारों को ट्रेनिंग दी गयी. जिसमें सूअर औऱ भैंस चराना, गोबर का गोएठा जैसे काम शामिल थे. कलाकार कैरेक्टर को समझ लें इसके लिए उन्हें मुसहरों के घरों में रखा गया, वो वहीं सोते, खाते और उन्ही के कपड़े पहनते. 



महिला संघर्ष और प्रेरणा की कहानी
"भोर" फिल्म में दिखाया गया है कि एक मूसहर समाज की लड़की है जो अपनी जिन्दगी को अपने शर्तो पर जिना चाहती है  और इसी क्रम में अपने से ही लड़ती है घर वाले लड़ती है, समाज वाले लड़ती है , उसकी मांग है कि वो अपने ढंग से पढना चाहती है अपनी मर्जी से शादी करना चाहती है बड़ी चतुराई से सामाजिक ताने बाने और सपनों की लड़ाई को दिखाया गया है. एक मुसहर समाज की लड़की जिसके घर वालों को उसकी सही उम्र तक नहीं पता, सिर्फ अपने सपनों और इच्छा शक्ति के बूते पूरे देश में आंदोलन खड़ा कर देती है. 



80 प्रतिशत फिल्म की शूटिंग बिहार के नालंदा जिला में हुआ है
इस फिल्म का 80 प्रतिशत शूट बिहार के नालंदा ज़िले में हुआ है. जहां फिल्म के कलाकारों के लिए एक भिन्न तरह का वर्कशॉप लगाया गया था. चूंकि डायरेक्टर कामाख्या नारायण चाहते थे कि उनके कलाकार बिल्कुल मुसहरों की तरह दिखें तो उन्हें पैंगरी गांव में रखा गया. रोज़ उनकी ट्रैनिंग बड़ी अद्भुत होती थी. जिसमें सूअर चराना, उनके खाने का बन्दोबस्त करना, खेत में भैंस ले जाना, गोबर का गोएठा बनाना शामिल था. कलाकार कैरेक्टर को समझ लें इसके लिए उन्हें मुसहरों के घरों में रखा गया, वो वहीं सोते, खाते और उन्ही के कपड़े पहनते. फिल्म पूरी तरह से फिल्म महिलाओं की स्वतंत्रता और शिक्षा के मुद्दों पर केंद्रित है.



डायरेक्टर को जो कपड़े अपने कैरेक्टर के लिए ठीक लगते वो गांव वालों से मांग लेते थे
कॉस्ट्यूम डिज़िन का काम भी बड़े रोचक ढंग से किया गया. डायरेक्टर को जो कपड़े अपने कैरेक्टर के लिए ठीक लगते वो गांव वालों से मांग लेते थे. इसके एवज़ में उन्हें नए कपड़े दे देते.