पटना: Caste Census in Bihar: बिहार में जातिगत गणना की तैयारी शुरू हो चुकी है. सरकार ने सर्वदलीय बैठक के बाद कैबिनेट की मीटिंग में इसके लिए जारी किए जाने वाले जरूरी फंड भी पास कर दिए हैं. अब 500 करोड़ की लागत से कराए जाने वाले जातीय गणना का परिणाम अगले साल यानि फरवरी 2023 तक आ जाएगा. लेकिन इस गणना के परिणाम को लेकर सियासी तैयारी अभी से चल रही है. 


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आशंका जताई जा रही है कि जातीय गणना के नतीजों के बाद एक बार फिर जातीय आधार पर बिहार की सियासत को नई धार मिलने वाली है. क्योंकि जिस जाति की जनसंख्या ज्यादा होगी, सियासी दल उसकी पैरोकारी करते नजर आएंगे.


2025 में बड़ा मुद्दा बन सकता है जातीय गणना
बिहार की सियासत में जाति हमेशा से बड़ा मुद्दा रही है, और यही वजह है कि जातीय गणना एक ऐसा मुद्दा बनकर उभरा है जो ना सिर्फ 2022 में चर्चा और चुनौती की दहलीज पर है बल्कि बिहार में होने वाले 2025 विधानसभा चुनाव के लिए भी बड़ा मुद्दा बनकर सामने आ सकता है. और अगर गणना के बाद के परिणाम पर सियासत शुरू हुई तो, बिहार के सियासी समीकरण बदल सकते हैं.  


2025 विधानसभा चुनाव में ये मुद्दा किसी के लिए जीत की मीनार बनेगी तो किसी की नइया को बीच में डूबो देगी. जातिगत गणना सिर्फ गणना नहीं है. हाल में जो सियासी समीकरण बन रहे हैं वो इस ओर इशारा कर रहे हैं कि जातिगत गणना से वोट बैंक चमकाने कि सियासत शुरू हो सकती है.


केंद्र सरकार पहले मना कर चुकी है
बीजेपी केंद्र में जहां जातीय गणना को नकार चुकी है वहीं बिहार में बने सियासी दबाव के कारण उसे अपने सहयोगी दल जेडीयू के आगे झुकना पड़ा और फिर उसने सर्वदलीय बैठक में जातीय गणना कराने के लिए हामी भर दी है. ऐसे में देखना होगा कि बीजेपी ने जातीय गणना को लेकर सियासी नफा नुकसान का आंकलन किस आधार पर किया है. अपने सवर्ण वोट बैंक से समझौते के साथ, या फिर गठबंधन धर्म निभाने की खातिर.


सियासत से इतर विकास के नजरिए से जातीय गणना
बिहार में जातिगत गणना न सिर्फ बिहार के विकास का मापदंड तय करने में मददगार होगी बल्कि सभी दलों को इसका फायदा मिलेगा. कौन सी जाति का आंकड़ा कितना है इसकी जानकारी होने के बाद सियासी दल उसके विकास के लिए जोर आजमाइश करते दिखेंगे. लेकिन अगर इन आंकड़ों का इस्तेमाल महज वोट पाने के लिए किया गया तो फिर इसके नाकारात्मक पहलू भी उभरकर सामने आ सकते हैं. और एक बार फिर प्रदेश जातीय संघर्ष की ओर जाता दिख सकता है. 


हालांकि बड़े पैमाने पर लोगों के बीच ये धारणा है कि जातीय गणना के पीछे सिर्फ और सिर्फ राजनीति है. दरअसल जाति गणना से सामान्य वर्ग, अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति-जनजातियों का आंकड़ा सामने आएगा, तो ये उनके उत्थान में मददगार साबित होगा. हालांकि इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता है कि जातियों की गिनती से संभव है कि सामान्य वर्ग और अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच संसाधानों के बंटवारे के मुद्दे पर दरार बढ़ भी सकती है. 


किस दल के खाते में कौन सी जाति?
बिहार में परंपरागत वोट बैंक की बात की जाए तो यहां मुस्लिम और यादव की आबादी करीब 30 फीसदी है. ऐसा माना जाता है कि इन जातियों की सहानुभूति लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल से है. नीतीश की पार्टी जेडीयू को कुर्मी जाति का समर्थन हासिल है. नीतीश की पार्टी मुसलमान और अगड़ी जातियों में भी अपनी पहुंच रखती है, साथ ही अंत्यंत पिछड़ा वर्ग पर भी नीतीश की नजर रहती है. 


गणना के जरिए सत्ता पर नजर!
इधर हम के नेता जीतन राम मांझी भी दलित समुदाय के एक वर्ग के वोट बैंक को हासिल करने में लगे रहते हैं. इसके अलावा सवर्ण मतदाता बीजेपी का वोट बैंक माना जाता है. जाहिर है गणना के आंकड़े आने के बाद तस्वीर साफ हो जाएगी और सभी अपने वोट बैंक के आंकड़ों को मजबूती से रख कर सत्ता पर काबिज होने की कोशिश करेंगे.