पटना: Satuan Fest in Bihar:सनातन परंपरा में हर एक दिन व्रत है और हर दिन है त्योहार. बिहार राज्य की ओर देखें तो देश के पूर्वी हिस्से में स्थित यह भूखंड कई अलग-अलग तरह की परंपराओं और रीतियों का पालन करने वाला स्थान है. परंपराओं की इसी कड़ी में एक पर्व है सतुआन. यानी कि सत्तू की पूजा करने, प्रसाद चढ़ाने, दान करने और खाने की परंपरा. अपने आप में यह त्योहार प्रकृति से जुड़ाव तो जगाता ही है, साथ ही आरोग्य लाभ की ओर इशारा करता है तो दूसरी ओर इस बात को बढ़ावा देता है कि सहजता और सादगी ही जीवन का मूल है. 


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

सफर में हमसफर रहा है सत्तू
पुराने समय में जब लोग बड़ी यात्राओं पर निकला करते थे कपड़ों की गठरी के साथ खाने का थैला जो साथ रखते थे उसमें सत्तू प्रमुखता से होता था. सत्तू होने का मतलब था कि आपकी यात्रा सरलता से बीतेगी और सत्तू आपको ऊर्जावान बनाए रखेगा.



लंबी यात्राओं पर जाने वालों के लिए आस-पास के लोग भी अपने घरों से भी थोड़ा ही सही, लेकिन सत्तू बांध कर दिया करते थे. बिहार में बेटियों के लिए वर खोजने जाने वाले पिता जब घर में इस बारे में बात करते थे और एक खास लोकोत्ति प्रयोग करते थे, अब सत्तू बांध ही दो, दूल्हा खोज कर ही लाऊंगा. सत्तू बांधने का अर्थ ही लंबी यात्राओं पर निकलना होता था. 


सत्तू में घुला-मिला है मां-पत्नी का प्रेम
सत्तू ने हर किसी का खूब साथ निभाया है. व्यापार-कारोबार के लिए परदेस गए विदेसिया के पास की एक गठरी उसके सीने के सबसे करीब रहती थी. ये वही गठरी होती थी, जिसमें पत्नी या मां ने सत्तू बांध रखा होता था, और बांधते-बांधते दो आंसू भी ढुलक कर उसी में मिल गए होंगे. उसी पोटली में नून और भुने जीरे की पुड़िया भी डली होती थी. ये नमक सिर्फ स्वाद बढ़ाने के लिए नहीं था, ये हर निवाले के साथ घर से निकले उस बेटे और पति को याद दिलाता था कि उसे जल्द ही जल्द घर भी लौटना है. 


हर गृहणी की निश्चिंतता रहा है सत्तू
सत्तू आशा भी रहा है और निश्चिंतता भी. घर से निकला आदमी बाहर भले ही हलवाई की जलेबी-बर्फी चख ले. चार पैसे ज्यादा हों तो रबड़ी-मलाई और मालपुए खाकर पेट भर ले, लेकिन माताओं को भूख मिटाने का भरोसा सत्तू ने ही दिलाया है. यही वजह है कि आज भी बिहार से कोई यात्रा पर निकलता है तो सत्तू किसी न किसी रूप में उसका हमसफर होता है.



वो घी-तेल में तली गई घाटियों और नमकीन कचौरियों में भरा होता है और निकल पड़ता है अंतहीन सफर पर. ये सत्तू ही है जो गृहणियों को चिंता में सुकून देता है. जब वो सोचती हैं कि पता नहीं, उसने कुछ खाया कि नहीं और फिर खुद से ही कह लेती हैं, सत्तू तो बांध ही दिया था. 


कई तरह से खाया गया सत्तू
सत्तू कई तरह से खाया गया. कभी उसे नमक और अचार मिला कर आटे की तरह गूंथ लिया गया. कभी उसे चीनी-गु़ड़ और घी मिलाकर मलीदा बनाया गया. उसे नमक मिला कर खाया गया तो सबसे अधिक बार सत्तू पिया गया. उसमें स्वाद बढ़ाने के लिए प्याज की कतरनें डाली गईं और पुदीने का पानी मिलाया गया. हरी मिर्च को कुतर कर मिलाया गया और लहसुन की दो कलियां कूच कर घोल दी गईं. शहरों ने इसे सत्तू का शरबत कहा और गांव वाले आज भी कहते हैं सत्तू घोल दिया है. 


सत्तू संस्कृति है
सत्तू शब्द या सिर्फ खाद्य नहीं है, सत्तू संस्कृति है. यह संस्कृति ऋग्वेद जितनी पुरानी है. वैदिक ऋचाओं में जहां अग्नि, इंद्र, वरुण और यम की उपासना के लिए ऋचाएं लिखी गई हैं तो वहां ये भी बताया गया है कि किसे क्या चढ़ाया जाए. अग्नि को धान, वरुण को गंगाजल, यम को काले तिल और इंद्र को ईख के रस के साथ सत्तू चढ़ाने का जिक्र किया गया है. अब सोचिए हजारों सालों से अधिक की जो लिखित परंपरा है सत्तू उसमें सबसे पहले आता है. 


वैदिक कहानी जो सत्तू का महत्व बताती है
अपाला नाम की एक विदुषी महिला का जिक्र भी वैदिक काल में आता है. कहते हैं कि वह सफेद दाग जैसी किसी बीमारी से परेशान थी. उसने इंद्र की तपस्या की. उसे सत्तू का भोग लगाया और ईख का रस चढ़ाया. इंद्र ये भोग पाकर प्रसन्न हुए और अपाला को रोग मुक्त कर दिया. आज भी रोगी को ठीक होने के बाद जब अनाज देने की शुरुआत की जाती है तो पतली खिचड़ी के बाद ठोस सत्तू का विकल्प दिया जाता है. ये पौष्टिक है, सुपाच्य और कमजोरी को दूर करता है. 


सतुआन की परंपरा जरूरी
सतुआन इन्हीं परंपराओं को जिंदा रखने का दिन है. सतुआन गर्मी की भयानकता की घोषणा है. यह एक अपील है कि दोपहर में जब सूर्य सिर पर चढ़ आया है और बाहर गर्म लू चलने लगी है तो शरीर को आंतरिक ठंडक सिर्फ सत्तू ही दे सकता है.



ये लू से बचाता है. गर्मी से बढ़ रहे ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करता है और भूख बढ़ाने का काम करता है. सत्तू, आम की कैरियां, नींबू और काला नमक गर्मी के लिए वरदान हैं. जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तो उसकी तपिश बढ़ जाती है. इस तपिश के आगे सत्तू कवच बन जाता है. 


हर परंपराओं की तरह सत्तू की परंपरा भी कम हो रही है, लेकिन इसे बनाए रखना जरूरी है. इसलिए क्योंकि जो हमें जिंदा रखे, उसका जिंदा रहना जरूरी है. 


यह भी पढ़िएः Satuaan Fest: सतुआन कब है, जानिए बिहार में इसे मनाने की परंपरा, पूजा विधि और महत्व