Bihar Politics: मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन दिनों लोकसभा चुनाव 2024 के लिए विपक्षी एकता की कवायद में जुटे हैं. वो 23 जून को पटना में विपक्ष की एक बैठक का आयोजन करने वाले हैं, जिसमें मोदी विरोधी नेताओं का जमावड़ा लगने वाला है. इस बैठक में आगामी लोकसभा चुनाव के लिए रणनीति तय की जाएगी. उधर बीजेपी भी इसका तोड़ निकालने में जुटी है. बीजेपी के चुनावी चाणक्य अमित शाह तो लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा की तैयारी करने में जुटे हैं. नीतीश-लालू की जोड़ी को टक्कर देने के लिए वह अब एनडीए का विस्तार करने में जुटे हैं. हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (एस) के अध्यक्ष और पूर्व सीएम जीतन राम मांझी के बेटे संतोष मांझी का नीतीश कैबिनेट से इस्तीफा इसी रणनीति का असर है. 


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दरअसल, बिहार में जातीय समीकरण काफी हावी रहते हैं. यादव और मुस्लिमों पर लालू की पार्टी राजद का एकक्षत्र अधिकार है, तो वहीं कुर्मी और कोइरी की दम पर नीतीश की राजनीति टिकी हुई है. ऐसे में शाह की निगाहें इस वोटबैंक में छेद करने के अलावा दलित और महादलित वोटबैंक पर टिकी है. चिराग पासवान, जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी इस समाज के बड़े नेताओं में गिने जाते हैं. शाह इन छोटे-छोटे दलों को अपने साथ लाकर बड़ा करिश्मा करने की प्लानिंग कर रहे हैं. वो यूपी में ऐसा करके दिखा चुके हैं. यहां अपना दल (एस) और निषाद पार्टी के साथ गठबंधन करके पार्टी आज लगातार दूसरी बार सत्ता में है. 


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इसमें कोई दो राय नहीं है कि चिराग-मांझी-सहनी की तिकड़ी जिसके साथ हो, उसके लिए 2024-25 के चुनावों में राहत होगी. यह तीनों ही अभी एनडीए से बाहर हैं, लेकिन इसके बावजूद महागठबंधन के लिए मुसीबत बनते दिख रहे हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान अपनी ताकत दिखा चुके हैं. चिराग के कारण ही जदयू की सीटें इतनी कम हो गईं. वहीं जीतन राम मांझी ने जब से नीतीश से अलग होकर अपनी अलग पार्टी बनाई, जेडीयू पहले के मुकाबले में कमजोर हुई है. विकासशील इंसान पार्टी (VIP) के संस्थापक और सन ऑफ मल्लाह के रूप में प्रसिद्ध मुकेश सहनी का भी अपना प्रभाव है. 


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बिहार में दलितों का वोंट बैंक 16 फीसदी के लगभग है. दलित राजनीति की करें तो प्रदेश में दलितों के बड़े नेताओं में जीतन राम मांझी, चिराग पासवान और पशुपति पारस का नाम लिया जाता है. पशुपति पहले से बीजेपी के साथ हैं. चिराग खुद को मोदी का हनुमान कहते हैं. जीतन राम मांझी भी एनडीए में आने को बेताब हैं. उन्होंने जब अमित शाह से मुलाकात की थी, तभी से कयास लगाए जा रहे थे कि वो महागठबंधन को छोड़ने वाले हैं. यदि मांझी भी बीजेपी के साथ आ जाते हैं, तो बीजेपी की ताकत और बढ़ सकती है. वहीं मुकेश सहनी अभी तक तो बीजेपी से नाराज चल रहे हैं, लेकिन राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी कभी स्थाई नहीं होती. नीतीश कुमार इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं.