17 साल पहले CM पद के दावेदार बने थे उपेंद्र कुशवाहा, अब सदन में जाने के लिए संघर्ष
कयासों के इस दौर में उपेंद्र कुशवाहा (Upendra Kushwaha) ने भी एक बार फिर सबको चौंकाते हुए उत्तरप्रदेश में प्रचलित मायावती की पार्टी बीएसपी के साथ आने का मन बना लिया और एक और मोर्चे के साथ ताल ठोंक दिया है.
पटना: बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Vidhansabha election) की रणभेरी बज चुकी है. चुनाव आयोग ने आधिकारिक तौर पर अपने तरफ से चुनावी दिनों का ऐलान कर दिया है. इस चुनाव को लेकर सबसे अहम बात यह है कि यहां तमाम राजनीतिक विश्लेषकों तक के प्रीडिक्शन यानी कि कयास फेल होते नजर आ रहे हैं.
कयासों के इस दौर में उपेंद्र कुशवाहा (Upendra Kushwaha) ने भी एक बार फिर सबको चौंकाते हुए उत्तरप्रदेश में प्रचलित मायावती की पार्टी बीएसपी के साथ आने का मन बना लिया और एक और मोर्चे के साथ ताल ठोंक दिया है.
इस पूरे लेख में हम आपको RLSP के मुखिया उपेंद्र कुशवाहा के राजनीतिक जीवन से रूबरू कराएंगे. 17 वर्ष पहले जो राजनेता मुख्यमंत्री बनने का प्रबल दावेदार हो गया था, वह आज विधानसभा में अपनी सहभागिता को लेकर कैसे संघर्षरत है, इसके पीछे के वजहों से आपकी भेंट कराएंगे. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) से कुशवाहा के 36 के आंकड़ें की वजह से उन्हें कितना नुकसान उठाना पड़ा है, ये आरएलएसपी प्रमुख से बेहतर कौन जानता होगा.
होनहार वजीर ने भी छोड़ा साथ
शायद यही कारण है कि महागठबंधन से नाता तोड़ने के बाद घरवापसी का रास्ता न इख्तियार करते हुए कुशवाहा ने एक अजीबो-गरीब दांव खेला और दलित पॉलिटिक्स पर केंद्रीत कर जनाधार पाने की लड़ाई में अब जुट गए हैं. दिलचस्प बात कहें या उपेंद्र कुशवाहा के लिए झटका, लेकिन उनके सबसे होनहार वजीर माने जाने वाले माधव आनंद ने भी उनका साथ यह कह कर छोड़ दिया है कि पार्टी अध्यक्ष ने उनका इस्तेमाल किया है.
अब जरा इत्मीनान से जानते हैं कुशवाहा के सियासी सफर के बारे में
1960 में लोकतंत्र की जननी वैशाली में जन्में उपेंद्र कुशवाहा का राजनीतिक सफर वैसे तो छात्र नेता के रूप में ही शुरू हो जाता है, लेकिन लेक्चरर की नौकरी को छोड़ कर पहली बार चुनावी मैदान में कुशवाहा ने 1995 में हाथ आजमाया. पार्टी थी नई नवेली बनी जॉर्ज फर्नांडिज, नीतीश कुमार और दिग्विजय सिंह जैसे राजनेताओं से सजी समता पार्टी. पहला चुनाव जंदाहा से लड़ने वाले उपेंद्र कुशवाहा बुरी तरह हारते हैं लेकिन इसके बाद 2000 के विधानसभा में बड़ी कड़ी प्रतिस्पर्धा के बीच जंदाहा विधानसभा सीट से विधायक बन कर सदन पहुंचते है.
समीकरण जिसने बना दिया कुशवाहा को नेता प्रतिपक्ष
चार साल में ही ऐसी परिस्थितियां बन गईं कि जंदाहा के इस विधायक को सुशील मोदी के विपक्ष के नेता की चेयर छोड़ने के बाद नेता प्रतिपक्ष की कमान मिल जाती है. नेता प्रतिपक्ष का सम्मान मिलने का सियासी मतलब यह होता है कि पार्टी इन्हें मुख्यमंत्री का उम्मीदवार के रूप में देखती है. दरअसल, स्थितियां कुछ यूं बनीं थीं कि भागलपुर से लोकसभा चुनाव जीतने के बाद सुशील मोदी को दिल्ली बुला लिया गया और उनकी जगह तात्कालीन रेल मंत्री नीतीश कुमार के खासमखास माने जाने वाले उपेंद्र कुशवाहा को उनकी जगह दे दी गई.
राजनीति का निराला खेल देखिए. जिस नीतीश कुमार को कुशवाहा बड़े भाई का दर्जा देते थे और पहली बार जिनकी पार्टी से उन्होंने अपने सियासी सफर की उड़ान भरी. कभी ऐसा न सोचा होगा कि समीकरणों के बलबूते उनके ही पर को कतर दिया जाएगा. अब आलम यह है कि नीतीश कुमार और उपेंद्र कुशवाहा एक दूसरे के साथ एक ही थाली के चट्टे-बट्टे बन कर रहने को तैयार नहीं हैं.
नीतीश कुशवाहा के बीच क्यों है तल्खी
कोई अगर इसका कारण पूछे तो साफ तौर पर बताया जा सकता है- राजनीतिक महत्वाकांक्षा. बिहार का मुखिया बनने की राजनीतिक महत्वाकांक्षा. इसको समीकरणों के हवाले से समझते हैं. दरअसल, बिहार में कुर्मी जाति और ओबीसी-2 जाति की जनसंख्या लगभग 8-10 फीसदी है. आंकड़े बताते हैं कि बिहार की एक चौथाई विधानसभा सीटों पर कम से कम 30 हजार से ज्यादा इन खास वोटरों की संख्या है.
अब नीतीश कुमार जो पिछले डेढ़ दशक से सत्ता में काबिज हैं और उपेंद्र कुशवाहा जो संघर्षरत हैं दोनों ही इस वर्ग पर अपनी मजबूत पकड़ का दावा करते हैं. हालांकि, नीतीश कुमार को कई राजनीतिक विश्लेषक हर जाति के सर्वमान्य नेताओं की श्रेणी में भी रखते हैं लेकिन उपेंद्र कुशवाहा की हालिया राजनीति इसी वोट बैंक के दम पर कूदफांद करती रही.
अब जरा संक्षेप में RLSP प्रमुख के चुनावी सफर के बारे में भी जान लेते हैं
2005 के विधानसभा चुनाव में किसी भी दल या गठबंधन को पहले पहल बहुमत लायक सीट नहीं मिली. दोबारा चुनाव हुए. एनडीए गठबंधन ने लालू यादव के डेढ़ दशके के राज को खत्म करते हुए सरकार बनाई. मुखिया चुने गए जेडीयू के नीतीश कुमार. लेकिन पहले जंदाहा और अब समस्तीपुर के दलसिंहसराय से चुनाव हारने वाले उपेंद्र कुशवाहा का राजनीतिक भविष्य अधर में लटक गया. पार्टी या यूं कहें कि नीतीश कुमार की तरफ से न ही कोई सम्मानजनक पद मिला और न कोई दिलासा. सो खटास वहीं से आनी शुरू हो गई.
एनसीपी छोड़ जेडीयू में हुए शामिल
कुशवाहा ने फिर 2008 में शरद पवार की पार्टी NCP ज्वाइन किया लेकिन मुंबई में उत्तर भारतीयों के साथ मारपीट और दुत्कार पर पार्टी लाइन से इत्तर बोल गए फिर क्या था पार्टी से बाहर जाने की नौबत आ गई. NCP छोड़ फिर से घरवापसी करते हैं. 2010 में उपेंद्र कुशवाहा को जेडीयू ने राज्यसभा भेजा. इस बार फिर कुशवाहा चुप नहीं रह सके और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मसले पर पार्टी लाइन से इत्तर बोल गए.
नीतीश को तानाशाह कह तोड़ दिया नाता
बात यही खत्म हो जाती तो बेहतर था लेकिन कुशवाहा को यह बात इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने नीतीश कुमार को तानाशाह कहते हुए फिर से 2012 में पार्टी छोड़ दी. 2013 में लोकसभा चुनाव के माहौल के बीच RLSP राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का गठन किया पटना के गांधी मैदान से और चुनावी तैयारी में लग गए. तब नीतीश कुमार की पीएम चेहरे को लेकर बीजेपी से खटपट हो गई थी और उन्होंने नाता तोड़ लिया था.
कुशवाहा के लिए यह सही समय और सही दल मिल जाने जैसा था. उन्होंने बीजेपी से हाथ मिलाया और 2014 लोकसभा चुनाव में तीन सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे. काराकाट लोकसभा सीट से कुशवाहा के अलावा उनकी पार्टी के 2 और सांसद संसद भवन पहुंचे. सबकुछ ठीक चल रहा था. 2015 के विधानसभा चुनाव में कुशवाहा को एनडीए में 23 सीटें मिली. पार्टी कोई कमाल नहीं दिखा सकी और लालू-नीतीश की जोड़ी के तूफान में सिर्फ 2 सीटें जीती.
नीतीश एनडीए में आए और कुशवाहा आरजेडी के हो गए
2017 में नीतीश कुमार ने आरजेडी से नाता तोड़ा और बीजेपी के साथ सरकार बना ली. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के आते ही कुशवाहा फिर से असहज होने लगे. इस बीच उन्होंने एनडीए को अलविदा कहा और आरजेडी के साथ मिलकर महागठबंधन की नींव तैयार की. 2019 का लोकसभा चुनाव साथ लड़े. RLSP को 5 पांच सीटें मिली और बदले में कुशवाहा की पार्टी ने एक भी सीट पर जीत दर्ज करने में नाकाम रही. कुशवाहा खुद भी काराकाट से जेडीयू के महाबलि सिंह से और उजियारपुर से बीजेपी के नित्यानंद राय से चुनाव हारे.
2020 में विधानसभा चुनाव आया. लगा कि इस बार महागठबंधन लोकसभा की गलती नहीं दोहराएगी और दल पूरी तैयारी के साथ आएंगे. लेकिन आरजेडी का कुछ और ही मूड था. RJD ने न सीट समीकरण तय किए न बातचीत की और मामला बड़ी शांति से निपट गया. कुशवाहा को तेजस्वी का नेतृत्व नागवार गुजरा और उन्होंने महागठबंधन को अलविदा कह दिया.
अब देखना यह होगा कि विधानसभा चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा क्या कोई कमाल कर पाते हैं?