Bihar NDA Seat Sharing: समय कभी-कभी किसी-किसी को दोराहे पर ला खड़ा करता है. कभी चिराग पासवान उसी दोराहे पर खड़े थे और आज पशुपति कुमार पारस को वहीं दोराहा चिढ़ा रहा है. समय का करवट लेना इसी को कहते हैं. कभी चिराग पासवान एनडीए से आउट हो गए थे तो आज पशुपति कुमार पारस के सामने वहीं स्थिति आन खड़ी हुई है. जैसे को तैसा वाला अंदाज में चिराग ने पलटी मारी है और पशुपति कुमार पारस के समय ने भी लगभग ऐसा ही पाला बदला है. खैर अब तो पशुपति कुमार पारस के सामने यह दुविधा खड़ी हो गई है कि ऐसा न हो कि वह न तो गवर्नर बन पाएं और न ही सांसद या मंत्री. मतलब पॉलिटिक्स समाप्त! 


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पिछली बार खबर आई थी कि भाजपा ने पशुपति कुमार पारस को गवर्नर बनने का विकल्प दिया था और यहां तक कहा था कि उनके भतीजे प्रिंस पासवान को नीतीश कुमार की सरकार में मंत्री बनाया जा सकता है. पशुपति कुमार पारस ने अपनी पार्टी के नेताओं के साथ बैठक कर भाजपा के इस फैसले का विरोध किया और कहा कि वह भाजपा की ओर उम्मीद से देख रहे हैं और उसके अंतिम फैसले तक इंतजार करेंगे. पशुपति कुमार पारस ने यह भी कहा कि एनडीए की सीट शेयरिंग के बाद ही वह अंतिम फैसला लेंगे. अब चूंकि एनडीए की सीट शेयरिंग हो चुकी है और उसमें पशुपति कुमार पारस की आरएलजेपी को कोई सीट नहीं दी गई है तो सवाल उठता है कि क्या पशुपति कुमार पारस अब एनडीए से अलग रास्ता चुनने वाले हैं. 


पिछले हफ्ते यह भी खबर आई थी कि तेजस्वी यादव और राजद की ओर से पशुपति कुमार पारस को महागठबंधन में शामिल होने के लिए न्यौता दिया गया था. हालांकि पशुपति कुमार पारस ने इस बाबत कुछ ठोस जानकारी नहीं दी है, लेकिन माना जा रहा है कि अगर उन्हें भाजपा का प्रस्ताव पसंद नहीं आएगा तो उनके सामने महागठबंधन में जाने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है. अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि पशुपति कुमार पारस अगर महागठबंधन में जाते हैं तो वे भाजपा और एनडीए का कितना नुकसान कर पाएंगे? 


अगर आप पशुपति कुमार पारस की पॉलिटिक्स को जानते हैं तो इतना तो पता ही होगा कि लोजपा के विभाजन से पहले उनकी अपनी कोई अलग पहचान नहीं थी. वे राजनीति में वर्षों से जरूर रहे हैं पर उनकी राजनीति रामविलास पासवान की छाया में होती रही थी. रामविलास पासवान की मौत के बाद पशुपति कुमार पारस ने मौका देखकर चौका मारा और परिवार की मर्यादा को तार-तार करते हुए पार्टी के 6 में से 5 सांसदों को अपने पाले में कर ले उड़े. बताया जाता है कि तब जेडीयू की ओर से पशुपति कुमार पारस गुट के नेताओं को मदद दी गई थी और भाजपा ने तो पशुपति कुमार पारस को मंत्री भी बना दिया था. 


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पार्टी तोड़ने और पशुपति कुमार पारस के मंत्री बनने के बाद से ही उनकी स्वतंत्र पॉलिटिक्स की शुरुआत हुई लेकिन वे अधिकांश समय दिल्ली से पटना और पटना से दिल्ली में लगा दिए. पार्टी गठन के बाद पशुपति कुमार पारस ने न तो कोई बड़ी रैली की और न ही अपनी औकात ​सहयोगी दलों को दिखाई. कार्यकर्ताओं से संवादहीनता होने के कारण जमीन पर उनकी पार्टी के कार्यकर्ता निराश हो गए और चिराग पासवान का समय मजबूत होते देख वे उनके साथ हो लिए. दूसरी तरफ चिराग पासवान बिहार की यात्रा पर निकले, कार्यकर्ताओं से लगातार संवाद किया, बड़ी बड़ी रैलियां कीं और यह सब दिखाकर वे सहयोगी और विरोधी दलों को संदेश देते रहे. जबकि ऐसा कर पाने में पशुपति कुमार पारस नाकाम साबित हुए. अब उनके साथ चंदन सिंह को छोड़कर कोई सांसद भी नहीं बचा. ऐसा न हो कि दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम वाली कहावत पशुपति पर चरितार्थ हो जाए.