पटना : बिहार में तमाम राजनीतिक बयानबाजी के बीच अंततः 7 जनवरी से जातिगत जनगणना का काम शुरू हो चुका है. नीतीश सरकार की तरफ से मई तक इस काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया गया है. वहीं आपको बता दें कि इस काम के शुरू होने के साथ ही बिहार में इसको लेकर सियासत भी तेज हो गई है. बिहार सरकार की तरफ से लगातार कहा जा रहा है कि ऐसा करने से गैर एससी, एसटी और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों की सही जानकारी सरकार के पास होगी जिसके जरिए सरकारी योजनाओं का  लाभ उनतक पहुंच पाएगी. वहीं इसका विरोध कर रहे नेताओं का कहना है कि यह समाज को जाति में बांटने की साजिश है. अग सर्वे कराना ही था तो आर्थिक आधार पर सर्वे कराया जाना था ताकि सरकारी योजनाओं का लाभ हर वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को मिलता. 


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ऐसे में आपको बता दें बिहार सरकार ने इस जातिगत जनगणना के काम के लिए 500 करोड़ रुपए के रकम को मंजूरी दी है. मतलब इस काम को पूरा करने में 500 करोड़ रुपए खर्च होंगे. लेकिन इस सब के बीच आपको बता दें कि जिन राज्यों में जाति आधारित जनगणना कराई गई वहां क्या-क्या हुआ और साथ ही वहां की सरकारों को इसका कितना लाभ मिला. 


बिहार से पहले राजस्थान और कर्नाटक में जातिगत जनगणना कराई गई थी. बता दें कि इसकी वजह से इन दो में से एक राज्य में तो सरकार को बहुमत तक खोना पड़ गया था और सरकार गिर गई थी. सबसे पहले राजस्थान में साल 2011 में जातिगत जनगणना कराई गई लेकिन इस गणना के आंकड़े को सार्वजनिक करने पर रोक लगा दी गई और यह रिपोर्ट आजतक सार्वजनिक नहीं हो पाई. 


2014-15 में जातिगत जनगणना कर्नाटक में कराने का काम तब की तत्कालीन कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने शुरू करवाया, इसके बाद इसको लेकर ढेर सारे सवाल उठे और इसे असंवैधानिक करार दिया गया. इसके बाद इसका नाम बदलकर 'सामाजिक एवं आर्थिक' सर्वे किया गया. 2017 में इसकी रिपोर्ट आई तो कांग्रेस की सरकार ने बहुमत खो दिया और कांग्रेस अपनी एक तिहाई सीट बचाने में भी नाकाम रही. सिद्धारमैया की सरकार के समय की यह रिपोर्ट आजतक सार्वजनिक नहीं हो पाई. 


ऐसे में अब सवाल यह उठता है कि क्या बिहार सरकार इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करेगी. क्या सरकार अपने आप से यह जोखिम उठाएगी. जिन दो राज्यों में जातिगत जनगणना हुई वहां कांग्रेस की सरकार थी और वहां की रिपोर्ट आजतक सार्वजनिक नहीं हो पाई है. ऐसे में क्या कांग्रेस के गठबंधन वाली नीतीश सरकार इस रिपोर्ट को सार्वजिनक करने का जोखिम उठाएगी.  बता दें कि इससे पहले साल 1931 तक जातिगत जनगणना होती आई थी 1941 में भी इसको लेकर आंकड़े भी जुटाए गए थे लेकिन क्या आपको पता है कि 1941 वाली यह रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की गई थी. 
इसके बाद 1951 से 2011 तक जितनी जनगणना हुई उसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का आंकड़ा तो दिया गया लेकिन अन्य जातियों के आंकड़े नहीं जारी किए गए.  


वैसे बिहार की तमाम राजनीति ओबीसी के इर्द-गिर्द घूमती है ऐसे में कोई भी सियासी दल इनको लेकर ज्यादा सोचता है. सारे सियासी दल इसी को ध्यान में रखकर अपनी सियासत करते हैं. वहीं ओबीसी की आबादी को लेकर अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर वह संख्या बढ़ी है तो इस जनगणना के बाद आरक्षण की 50 प्रतिशत की सीमा टूट सकती है. ऐसे में अब यह देखना होगा कि क्या इस जनगणना को जो लोग नीतीश कुमार का मास्टरस्ट्रोक बता रहे हैं वह सही साबित होगा या फिर अन्य दोनों राज्यों की तरह यहां भी रिपोर्ट फाइल में दबी रह जाएगी.  


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