Patna: अपनी आत्मकथा 'वजूद और परछाई' में दिलीप कुमार (Dilip Kumar) ने लिखा है कि 'मेरा सदैव यह मानना रहा है कि अभिनेता को सामाजिक उत्तरदायित्व निभाते हुए समाज के प्रति समर्पित रहना चाहिए. एक अभिनेता, जो असंख्य लोगों का चहेता होता है, को समाज के प्रति अहसानमंद होना चाहिए, जिसने उसे उच्च और सम्माननीय दर्जा दिया है.'


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7 जुलाई को ट्रैजडी किंग दिलीप कुमार हमेशा के लिए खामोश हो गए. 98 साल की लंबी और बेहद कामयाब जिंदगी जीकर उन्होंने दुनिया-ए-फानी को अलविदा कहा. उनके हिस्से कई कामयाबी फिल्में रहीं तो उन्होंने 3 पीढ़ियों के दिलों पर राज भी किया. पिछले कुछ सालों से अस्पताल जाना, देशभर से उनके लिए दुआएं होना और उनका वापस लौटकर घर आना आम सा हो गया था. दिलीप साहब के चाहनेवाले भी चाहते थे कि उनका पसंदीदा कलाकार कम से कम 100 बसंत तो देख ही लें. लेकिन केवल लंबी उम्र की ही बात नहीं है, दिलीप साहब ने जितनी कामयाब जिंदगी जी है, वैसी जिंदगी बहुत कम लोगों को नसीब होती है.


डूबते सूरज को निहारा करते थे
मायानगरी में सभी लोग शोहरत के पीछे भागते रहते हैं. गलाकाट प्रतिस्पर्धा के बीच एक दूसरे से आगे निकलने की मानो होड़ सी लगी रहती है. लेकिन इसी मायानगरी में एक कलाकार ऐसा भी था जो अलग था, उन्हें डूबते हुए सूरज को देखने की आदत थी, मानो वो अभिनेता शोहरत की बुलंदी की हकीकत करीब से जानने की कोशिश कर रहा हो.


ताउम्र साये की तरह साथ रहने वाली सायरा बानो (Saira Banu) दिलीप कुमार के बारे में लिखती हैं कि, वो ऐसे इंसान थे जिन्हें शास्त्रीय संगीत से मोहब्बत थी, अच्छी शायरी से लगाव था और वे प्रकृति से प्रेम करने वाले सितारे थे. वे खुद ड्राइव कर समुद्र किनारे पहुंच जाते और डूबते हुए सूरज को देर तक निहारा करते. मुंबई की मायानगरी में जहां हर कोई काम के पीछे पागल है, दिलीप कुमार को कभी किसी ने काम के पीछे भागते नहीं देखा.


मां को साबित की ईमादारी
वे जिंदगी जीते थे और उसे ही पर्दे पर उतार देते थे. अपनी खनकती हुई आवाज और शर्मीली मुस्कान के साथ दिलीप कुमार ने अभियन की सभी मान्यताओं और परिभाषाओं को उलट-पुलट कर रख दिया. दिलीप साहब अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि उन्होंने अपनी पहली नौकरी पुणे के एक आर्मी कैंटीन में शुरू की थी. यहां से जब घर वापस लौटे तो उन्हें काम के बदले में करीब 5 हजार रूपए मिले. उस वक्त 5 हजार एक बड़ी रकम हुआ करती थी और घर लौटकर जब उन्होंने ये पैसे अपनी मां को दिए तो मां हैरान रह गई. मां को लगा ये पैसे दिलीप साहब ने गलत तरीके से कमाए हैं. मां को तब जाकर संतोष हुआ जब कुरान की शपथ लेकर दिलीप साहब ने कहा कि उन्होने मेहनत और ईमानदारी से ये पैसे कमाएं हैं. पेशावर के रहने वाले इस जहीन और शानदार इंसान का नाम तब दिलीप कुमार हुआ भी नहीं था वे युसुफ खान थे.


पिता चाहते थे कारोबार आगे बढ़ाएं
वापस लौटने के बाद उनके पिता चाहते थे कि दिलीप साहब कारोबार में हाथ बंटाएं लेकिन इन्हें तो कुछ और ही मंजूर था. उनके पिता मोहम्मद सरवर खान ने उन्हें नैनीताल जाकर सेब के एक बगीचे का सौदा करने को भी कहा, दिलीप साहब नैनीताल गए भी, सौदा भी किया लेकिन अपने मन में ये फैसला कर लिया कि खानदानी कारोबार में शामिल होना और उसे आगे बढ़ाना गौरव की बात हो सकती है, लेकिन इस काम के लिए वो नहीं बने हैं.


हालांकि, इस वक्त तक दिलीप साहब ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उन्हें एक्टर बनना है, यहां तक कि उनके पिता मोहम्मद सरवर खान राज कपूर के दादा दीवान बशेशरनाथ जी से अक्सर मजाक में कहते थे कि 'आपके बेटे पृथ्वीराज को नौटंकी के अलावा करने को कोई और पेशा नहीं मिला'. जाहिर सी बात है दिलीप कुमार के पिता के ख्यालात अभिनय को लेकर अच्छे नहीं थे. लेकिन फिर वो घटना हो गई जिसने दिलीप साहब को वहां पहुंचा दिया जहां जाने के लिए ही वो बने थे. एक बार युसुफ खान यानी दिलीप कुमार को डॉ मसानी ने अपने साथ ले जाकर बॉम्बे टॉकीज की मालकिन देवीका रानी से मिलवाया. देवीका रानी ने गौर से देर तक दिलीप साहब को देखने के बाद मुस्कुराते हुए कहा 'क्या आप एक्टर बनना पसंद करेंगे?' दिलीप साहब तो मानो इसका इंतजार कर रहे थे, जवाब उन्होंने जो दिया वो भारतीय फिल्म उद्योग का उज्जवल इतिहास है. पीढ़ियां खप जाएंगी, सदियां गुजर जाएंगी लेकिन फिल्म जगत की कोई भी दास्तान बगैर दिलीप कुमार यानी युसुफ खान के मुकम्मल नहीं होगी.


दिलीप साहब का किरदार इतना बुलंद है कि उसे एक लेख में समेटना मुमकिन नहीं है लेकिन इस लेख का समापन उसी शेर के साथ जिसे दिलीप साहब ने अपनी आत्मकथा की शुरुआत में ही लिखा है-


मुझे तो होश नहीं आप मशविरा दीजिए
कहां से छेडूं फसाना कहां तमाम करूं