पटनाः Makar Sankranti Khichadi: प्रभात बेला है. कोहरे की चादर को चीरकर सूर्यदेव निकलने की कोशिश कर रहे हैं. घरों में स्नान के लिए होड़ है. तेल-उबटन एक दिन पहले ही तैयार करके पनारे पर रख दिया गया है. एक बरतन में थोड़ा तिल भींग रहा है. घर की सबसे बुजुर्ग अम्मा आज बड़ी जिम्नेदारी से सबसे कह रही हैं. तिल के पानी से नहइह (तिल के पानी से नहाना). सब लोग उनकी बात मानकर ऐसा ही करते हैं. अम्मा का दूसरा ध्यान रसोई में है. चूल्हे पर बड़ा भगौना पानी चढ़ा है. एक और मूंग-उर्द की दाल भींग रही है, चावल भी है. कुछ सब्जियां पहले ही काट कर रख ली गई हैं. कल ही बिलोने से घी तैयार किया है. दही भी रात ही संजो ली है. आम का अचार भी निकाल लिया है. चट-पट पापड़ सेंक लेने है. कुल मिलाकर नहा-धो कर, सूर्यदेव को प्रणाम कर घर-भर को साथ बैठ जाना है. आज संक्रात है. मकर संक्रांति... लेकिन पूरब गांव इसे सहज-सरल में कहते हैं आज खिचड़ी है. ये सारी तैयारी इसी के लिए है. खिचड़ी के लिए. 


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लोकमानस में रची-बसी है खिचड़ी
खिचड़ी के साथ कुछ ऐसा है कि आप इसे पसंद कर सकते हैं, बीमारू भोजन कहकर नकार भी सकते हैं, लेकिन किसी भी रसोई से आप इसे बेदखल नहीं कर सकते हैं. जिंदगी में चाहे जितने लम्हे जीने को मिले, उन लम्हों का दौ कौर हिस्सा, खिचड़ी के हिस्से तो जाएगा ही. खिचड़ी लोकमानस में ऐसी रची बसी है कि इसकी कहानियां भी खिचड़ी हो चली हैं.अब आलम ये है कि जितनी लोग, उतनी बातें और उतनी ही तरह की खिचड़ी. नीति की कहानियों से लेकर राजनीति तक खिचड़ीमय रही है. जिसके नाम पर कश्मीर से कन्याकुमारी तक पूरा त्योहार ही मना लिया जाए तो उसका कहना ही क्या. खिचड़ी वैसी ही है, जैसे हरि अनंत और हरि कथा अनंता.



भगवान जगन्नाथ का प्रिय भोग खिचड़ी
बात हरि की ही हो आई तो यहीं से शुरू करते हैं. जगन्नाथ धाम में प्रभु का पावन प्रसाद खिचड़ी ही है. हुआ क्या कि एक बूढ़ी माई रोज उन्हें खिचड़ी का भोग लगाती हैं. माई उठती, खिचड़ी बनाती और परोसती और कहती, आओ गोपाल जी खा लो. भगवान मंदिर छोड़ कर चले जाते. एक दिन किसी ने कह दिया कि गोपाल जी को भोग लगाती हो तो नहा तो लिया करो, आंगन तो साफ कर लिया करो. माता जी को बात सही लगी. उन्होंने अगले दिन आंगन बुहार कर- नहा कर खिचड़ी बनाई और गोपाल जी को भोग दिया, लेकिन इन सबमें देर हो गई. जैसे ही गोपाल जी ने दो कौर खाए तैसे ही मंदिर में पुजारी जी ने भोग का आह्वान किया. भगवान भागकर उधर भी गए, लेकिन मुंह में जूठन लगी रह गई. पुजारी जी बड़े चकित. अगले दिन छुपकर देखा कि क्या माजरा है तो सब समझ गए. बूढ़ी माई की गोद में भगवान खुद उनके हाथ से खिचड़ी खा रहे थे और श्री मंदिर में मोहन भोग यूं ही रखा रहता था. तबसे पुरी में खिचड़ी का प्रसाद प्रचलित हो गया. 


जब गड़ेरियों ने खिलाई खिचड़ी
पुरी में ही एक लोककथा और प्रचलित है. एक बार देवी लक्ष्मी किसी निम्न जाति की महिला के घर प्रसन्न होकर चली गईं. भगवान ने ऊंच-नीच का भेद मिटाने के लिए लीला रची. बलभद्र ने श्रीमंदिर से लक्ष्मी को निष्कासित कर दिया, तब देवी लक्ष्मी ने श्राप दिया कि आप दोनों को 12 वर्ष तक भोजन न मिले और जब तक किसी निम्न जाति से प्रसाद न मिले श्राप न हटे. इधर-उधर भटकते-भटकते बलभद्र और श्याम जी बहुत थक गए. जब पेट ने असली भूख पहचानी तो वन के गड़ेरियों ने मिलकर आस-पास जो भी उपलब्ध हुआ उससे खिचड़ी बनाई और भगवान को खिलाया. 


गौतम ऋषि ने भी बनाई थी खिचड़ी
खिचड़ी ऐसी ही समरसता का प्रतीक नहीं मानी गई है, जिन गौतम ऋषि के तपोवन में गाय और शेर एक साथ जल पीते थे, एक बार अकाल पड़ने पर उन्होंने 7 वर्ष तक खिचड़ी खिलाकर लोगों का भरण-पोषण किया था. इतिहास और पुराण गवाह है कि जब मनुष्य को तेज भूख लगी है, दिमाग कुंद होने लगा है और कुछ नहीं रहा है तो खिचड़ी इंस्टेंट भोजन के तौर पर सामने प्रकट हुई है. इतिहास भले ही खोजता रहे कि पहली खिचड़ी कहां बनी, लेकिन पुराण कथाओं के पास इसका भी जवाब है. इतिहास में खिचड़ी (Khichdi) तकरीबन 3000 साल पुरानी है, लेकिन असल में सबसे पहली खिचड़ी (Khichdi) देवताओं के लिए बनाई गई थी.


बिहार में पकी पहली खिचड़ी !
किवदंतियों के रूप में बिहार के भागलपुर स्थित कहलगांव से खिचड़ी (Khichdi) का प्राचीन इतिहास जुड़ा हुआ है. यहां एक समय ऋषि कोहल ने तपस्या की थी और ऋषि दुर्वासा का भी आश्रम यहां रहा हैं. कहलगांव की मान्यता कैलाश और काशी के बराबर है. एक बार देवासुर संग्राम में देवता कमजोर हो गए थे. असुरों के कारण यज्ञ-हवन नहीं हो पा रहे थे. तब वे इसी कोहलगांव पहुंचे थे. कहते हैं कि ऋषि दुर्वासा ने देवताओं के लिए तुरंत भोजन अनाजों और सब्जी को सिर्फ जल में उबालकर खाने योग्य बनाया. यही खिचड़ी कहलाया. इसीलिए बिहार में मकर संक्रांति पर खिचड़ी खाने की परंपरा भी रही है.  



महाभारत में भी पकी है खिचड़ी
खिचड़ी की एक कड़ी महाभारत से भी जुड़ती है. झारखंड के नगड़ी गांव की मान्यता है कि यहां पांडवों ने वनवास का कुछ समय बिताया था. एक दिन द्रौपदी को हस्तिनापुर का अपमान याद आ गया और फिर उनका युधिष्ठिर से कुछ विवाद हो गया. इसके बाद किसी ने भोजन नहीं किया. भीम ने दोनों छोटे भाइयों को भूखा जाना और इन सबके कारण उन्हें कौरवों के कृत्य याद आ गए. इससे वह और क्रोधित हो गए. भूख और क्रोध की इसी मिली-जुली प्रक्रिया में उन्होंने  इसी बीच भीम भी क्रोधित हो गए. क्रोध में उन्होंने पकाने के बर्तन में सारे अनाज और सब्जियां एक साथ ही डाल दिए. इस तरह खिचड़ी बन कर सामने आई. ये कहानी जितनी अधिक खिचड़ी की है उतनी ही अधिक पारिवारिक प्रेम और समरसता की है. जिसमें लोग नाराजगी और नोकझोक के बाद भी एक-दूसरे का ख्याल रखते हैं.


चंद्रगुप्त को सम्राट बनाने वाली खिचड़ी
बात समरसता की होती है, सम्राटों से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने खिचड़ी को ही इसका अहम सूत्र माना है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बीते कई दशकों से गांवों-कस्बों में समरसता कार्यक्रम चला रहा है, जहां खिचड़ी का भोज दिया जाता है. खिचड़ी न सिर्फ लोगों को एक सूत्र में पिरोने का काम करती है, बल्कि साम्राज्यों के निर्माण में भी अहम भूमिका निभाती आई है. आचार्य़ चाणक्य ने शिखा खोलकर नंद के विनाश की शपथ तो ले ली, लेकिन वह खिचड़ी ही थी, जिसने चंद्रगुप्त को सम्राट बनाया. गुरबत की उस रात में अगर वह वृद्धा गर्म खिचडी के बीच हाथ डालने से मना न करती तो चाणक्य कभी न समझ पाते कि सीधे पाटलिपुत्र और मगध पर आक्रमण नहीं करना है, बल्कि पहले किनारे के राज्यों को जीतना है. खिचड़ी का दीवाना सिकंदर का सेनापति सेल्यूकस भी था. कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि हार के बाद मैत्री संबंध की बैठक में दोनों पक्षों को खिचड़ी परोसी गई और फिर हेलेना का विवाह चंद्रगुप्त के साथ तय हुआ. 



बाबा कबीर की खिचड़ी
बात समरसता की हो तो महात्मा बाबा कबीर को कैसे भूल सकते हैं. बाबू श्याम सुंदर दास ने तो उनकी भाषा ही पंचमेल खिचड़ी बता दी है. हालांकि कबीर बाबा ने खिचड़ी पर क्या कहा है, ऐसी कोई साखी सबद रमैनी ध्यान तो नहीं आती, लेकिन मगहर में मकर संक्रांति के मौके पर उनकी समाधि पर खिचड़ी जरूर चढ़ाई जाती है और खिचड़ी भोज किया जाता है. यह परंपरा जगन्नाथपुरी से जुड़ी है. बताते हैं कि जगन्नाथपुरी के समागम में कबीर दास और रहीम दास के पास बैठकर पंडितों व अन्य लोगों ने भोजन करने से मना कर दिया था. वजह निकली उनकी जाति. एक थे जुलाहा और दूसरे हरिजन. चमत्कार हुआ कि अगले ही पल हर किसी को अपने बगल में कबीर व रहीम दिखाई देने लगे. उसी समय से कबीर पंथ में खिचड़ी खाने व अर्पित करने की परंपरा चली आ रही है. पूर्वांचल में गोरखपुर के बाद मगहर दूसरा स्थान है जहां खिचड़ी चढ़ती है. 


गोरखपुर का खिचड़ी मेला
खिचड़ी की बात हो और खिचड़ी मेले को भूल जाएं, ऐसा कैसे? यूपी के सीएम महंत आदित्यनाथ गोरखपुर की राजनीति से निकलकर सूबे के मुखिया बने हैं. गोरखनाथ मंदिर सियासत की अहम धुरी रहा है. यहां पर सदियों से चली आ रही खिचड़ी चढ़ाने की परंपरा विश्व भर में प्रसिद्ध है. कहते हैं कि बाबा गोरखनाथ हिमाचल में मां ज्वाला धाम पहुंचे. मां ने पुत्र के लिए भोजन बनाने के लिए पानी गर्म होने रखा. बाबा ने कहा, मैं खिचड़ी मांग कर लाता हूं. खिचड़ी मांगते-मांगते वह गोरक्षपुरी आए और यहां खप्पर जमाकर बैठ गए. खप्पर आज तक नहीं भरा है. वहां हिमाचल के ज्वाला जी में स्थित गोरखडिब्बी में पानी आज तक गर्म हो रहा है. गोरखनाथ में पहली खिचड़ी नेपाल नरेश की चढ़ने की परंपरा रही है. समरसता के इस प्रतीक भोजन की कथा नाथ संप्रदाय से तो सीधे तौर पर जुड़ी है. कहते हैं कि खिलजी ने जब आक्रमण किया तो उस समय नाथ योगियों ने उसका सामना किया. अपने सैन्य योगियों के झटपट भोजन के लिए ही बाबा गोरखनाथ ने दाल, चावल और सब्जी को एकसाथ पकाने के लिए कहा, ताकि समय भी कम लगे और पोषण भी भरपूर मिले. खिचड़ी इसका सटीक उपाय बनकर सामने आई. 



मुगल दरबार में भी खिचड़ी
आगे आने वाले दौर में खिचड़ी मुगलों के दरबार में भी पसंदीदा रही. इससे पहले चौदहवीं सदी में मोरक्को यात्री इब्नबतूता, 15वीं सदी में रूसी यात्री निकेटिन और अबुल फजल ने अपने लिखित दस्तावेजों में खिचड़ी का जिक्र किया है. इब्नबतूता कुछ ऐसे लिखता है कि  'मुंज को चावल के साथ उबाला जाता है, फिर मक्खन लगाया जाता है और खाया जाता है. अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी शाही रसोई की खिचड़ी के बारे में लिखा है कि इसे केसर केसर और कुछ गर्म मसालों और सूखे मेवे के साथ पकाया गया. हालांकि भोज विशेषज्ञ और कुछ इतिहासकार यह नहीं मानते कि आइने अकबरी असल में खिचड़ी की बात कर रही थी. यह चावलों के पुलाव सरीखे किसी व्यंजन का वर्णन है. भारतीय घरों में चावल और विभिन्न सब्जियों के साथ, सुगंधित मसाले मिलाकर तेहरी बड़े शौक से खाई जाती है. क्या इसे खिचड़ी कह सकते हैं? क्यों कहें, जब इसका नाम तेहरी है तो है. 


याद है 'बीरबल की खिचड़ी' ?
वैसे अकबर की बीरबल के साथ प्रसिद्ध कहानी में खिचड़ी एक किरदार की तरह है और आज बीरबल की खिचड़ी एक प्रसिद्ध मुहावरा है. मुहावरों की बात निकल आई है तो बता देना चाहिए कि खिचड़ी ने यहां ही सिक्का जमा रखा है. कहीं कोई कुछ 'खिचड़ी पकाता' मिलेगा, तो कोई 'डेढ़ चावल की खिचड़ी' अलग ही पका रहा होगा. और तो और 'अपनी खिचड़ी अलग पकाने'' वाले भी कम नहीं हैं, वहीं 'नौ चूल्हे की खिचड़ी' (अस्थिर विचार) पकाने वाले भी खूब मिलेंगे. किसी के 'बाल खिचड़ी' हो गए हैं, तो कोई ऐसा है कि उसे 'एक कलछी खिचड़ी' भी न नसीब हो. हिंदी खिचड़ी से बने ऐसे ही कई मुहावरों से खूब समृद्ध है. 



महाकवि घाघ ने ऐसी बताई है 'खिचड़ी'
समृद्धि की बात के साथ सेहत की बात करना भी जरूरी हो जाता है. सेहत का राज ये है कि खिचड़ी एक पौष्टिक आहार है. यह सुपाच्य है और इसे ऋतु परिवर्तन का उचित भोजन माना गया है. एक लोकोत्ति है कि माघ महीना खिच्चड़ खाय. यानी कि माघ के महीने में खिचड़ी खाना उत्तम रहता है. इसी बात को जन कवि घाघ इस तरह कहते हैं. ''माघ मास घिउ खिचड़ी खाए, फागुन उठकै प्रात: नहाए'' यानि की माघ मास में घी खिचड़ी का सेवन करना चाहिए और फाल्गुन में सूर्योदय से पूर्व स्नान करना चाहिए. यह सेहत के लिए अच्छा होता है. इसे वह एक और उक्ति में कहते हैं. 
बे माघे खिचड़ी खाये, बे महरी ससुरारि जाये।
बे भादों पेन्हाई पव्वा, कहें घाघ ये तीनों कव्वा।।
यानी जो लोग माघ छोड़कर दूसरों महीनों यानी कभी भी खिचड़ी खाये, जो व्यक्ति पत्नी के मरने के बाद ससुराल जाए और भादों के अलावा दूसरी ऋतु में झूला झूले.
कवि घाघ कहते हैं ये तीनों प्राणी मूर्ख ही हैं.


कुल मिलाकर यह जीवन खिचड़ीमय है. आप इससे बचकर जा नहीं सकते हैं. तो एक ही विकल्प है. पंगत में बैठिए. थाली में खिचड़ी परोसिये, बीच में घी डालिए. साथ में दही रखिए, और अचार-पापड़ के चटकारे लेते हुए चटकर जाइए. परिवार साथ में हो तो और मजा आएगा. यकीन मानिए आप तृप्त हो जाएंगे. Happy Khichadi