Mulayam Singh Yadav: संस्मरण: मुलायम सिंह यादव नहीं रहे पर जलवा तो कायम रहेगा
मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक पारी एक बार जब शुरू हुई तो फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. 8 बार उत्तर प्रदेश विधानमंडल के सदस्य रहे, 7 बार संसद के सदस्य रहे, यूपी में नेता विपक्ष रहे, 3 बार मुख्यमंत्री रहे, भारत सरकार के रक्षामंत्री की जिम्मेदारी भी निभाई.
पटना : देश में केवल मुलायम सिंह यादव भी 'नेताजी' के नाम से मशहूर थे. उनके प्रशंसकों, चाहनेवालों और पार्टी वर्कर्स की इतनी बड़ी तादाद है कि उत्तर भारत में कोई नेता उसकी बराबरी नहीं कर सकता है. आज हर आंख नम है और हर चेहरा मायूस है, क्योंकि मुलायम सिंह यादव की लंबी सियासी पारी में सबके लिए जगह थी. सियासत के खेल में समाजवाद के सिपाही की तरह लड़े और खेल के नियम से कभी शिकायत नहीं की, क्योंकि नेताजी ये जानते थे कि उन्हें अपनी लड़ाई भी लड़नी है और आने वाली वैचारिक नस्लों के लिए मैदान भी छोड़कर जाना है. डॉ राम मनोहर लोहिया ने हिन्दुस्तान की राजनीति को जिस गरीब आदमी केंद्रीत सियासत में बदलने का सपना संजोया था, उस नेक इरादे को मन में बसाकर पूरी जिंदगी खपा देने वाले राजनीतिक रथी का नाम था मुलायम सिंह यादव.
समाजवादी पार्टी से लंबे वक्त तक नाराज रहने के बाद जब 2011 में आजम खान दोबारा पार्टी के करीब आए तो उन्होंने मुलायम सिंह यादव के लिए एक शेर कहा,
कभी खुशी से खुशी की तरफ नहीं देखा,
तुम्हारे बाद किसी की तरफ नहीं देखा.
ये सोचकर कि तेरा इंतज़ार लाजिम है,
तमाम उम्र घड़ी की तरफ नहीं देखा.
कार्यकर्ताओं के लिए लड़ते रहे
मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक पारी एक बार जब शुरू हुई तो फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. 8 बार उत्तर प्रदेश विधानमंडल के सदस्य रहे, 7 बार संसद के सदस्य रहे, यूपी में नेता विपक्ष रहे, 3 बार मुख्यमंत्री रहे, भारत सरकार के रक्षामंत्री की जिम्मेदारी भी निभाई, लेकिन इतने महत्वपूर्ण पदों पर रहने के बाद भी वो भीतर से ठेठ हिन्दुस्तानी ही बने रहे. सैफई उनके दिल में था और वो सैफई के दिल में था. इस मौके पर 2009 के चुनाव का एक वाकया याद आता है, जब वे खुद चुनाव लड़ रहे थे और सैफई वोट डालने के लिए आए थे. पोलिंग बूथ पर जब मुलायम सिंह यादव वोट डालने पहुंचे तो कुछ लोगों ने पिठासीन अधिकारी की शिकायत की. अधिकारी वोट डालने के लिए लाइन में लगे लोगों से सहयोग नहीं कर रहे थे. मुलायम सिंह यादव उस वक्त देश की सियासत की बड़ी हस्ती थे, कुछ महीने पहले उनके ही समर्थन से भारत सरकार बची थी. न्यूक्लियर डील के वक्त जब वामपंथी दलों ने यूपीए-1 सरकार से समर्थन वापस ले लिया तो मुलायम सिंह ने सरकार बचाई थी. वे चाहते तो उस अधिकारी की शिकायत कर सकते थे, लेकिन वे वहीं उस अधिकारी से भिड़ गए. मुलायम सिंह से लोगों नेशिकायत की और वो लोगों की बात सुनकर सिस्टम से भिड़ गए. मुलायम सिंह यादव ये अच्छी तरह जानते थे, कि अधिकारी पर एक्शन तो वो करा देंगे लेकिन जिन लोगों ने उनसे शिकायत की है उनको व्यवसथा से टकराने का साहस नहीं दे पाएंगे. इसलिए उन्होंने दूसरा रास्ता चुना, और वो आजीवन यही करते रहे. यही नहीं कार्यकर्ताओं की हर छोटी-मोटी बात को पूरा करना उनका ज़िद भी था और जुनून भी, जिस मिट्टी से उगकर विशाल आकार लिया था उस मिट्टी को उन्होंने अपनी जड़ों से जकड़े रखा. इसका नतीजा ये हुआ कि मुलायम सिंह के रहते हुए समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश की एक प्रमुख राजनीतिक पार्टी बनी रही.
विरोधी समाजवादी पार्टी को कमजोर नहीं कर पाए
जो प्रदेश 'कमंडल' की राजनीति की प्रयोगभूमि रहा हो, वहां सियासत में अपना सिक्का चलाना आसान नहीं था, लेकिन मुलायम सिंह यादव की सूझबूझ और राजनीतिक कौशल ने इसे मुमकिन कर दिखाया. 1992 के मंदिर आंदोलन के बाद बीजेपी के उभार ने उत्तर प्रदेश में पहले कांग्रेस को खत्म कर दिया, फिर 2014 के बाद आई 'मोदी लहर' ने करीब-करीब बहुजन समाज पार्टी को समाप्त कर दिया, लेकिन एड़ी-चोटी का जोर लगा देने के बाद भी मुलायम सिंह यादव का जनाधार चट्टान की मजबूती के साथ डटा रहा. मुलायम सिंह यादव सियासत में आने से पहले दंगल के पहलवान थे और राजनीति में भी वे अच्छी तरह जानते थे कि विरोधियों को पछाड़ने के लिए कौन सा दांव कब लगाना है.
सियासत करने का खास हुनर था
मुलायम सिंह यादव ने एूक बार लखनऊ में एक पब्लिक मीटिंग में सार्वजनिक तौर पर कहा था कि वे लखनऊ में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की एक मूर्ति बनाना चाहते हैं और बाद में वो मूर्ति बनी भी है. मुलायम सिंह यादव की विचारधारा स्पष्ट थी, कहां कौन सी लाइन लेनी है वो बखूबी जानते थे. यही वजह थी कि उन्हें अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता जाहिर करने के लिए किसी किस्म की नौटंकी नहीं करनी पड़ती थी. इसलिए जब जरूरत हुई तो कड़े फैसले भी लिए और जब जरूरत हुई तो कल्याण सिंह के साथ एक ही माला पहने नजर भी आए. कहते भी हैं कि मुलायम सिंह यादव जब बोलते थे तो कुछ लोगों को बात समझ नहीं आती थी, लेकिन जब सियासत करते थे तो ज्यादातर लोगों को समझ में नहीं आता था. वे समय के पारखी थे और सियासत की नब्ज पर पकड़ भी रखते थे. जब परिवार में भी विवाद हुआ तो मुलायम सिंह यादव को करीब से जानने वाले भी ये बताने में नाकाम रहे कि वे किसके साथ हैं. अखिलेश के साथ या शिवपल के साथ. नेताजी का यही हुनर उन्हें देश की राजनीति में बेहद खास बनाता था.
अल्पसंख्यकों को समाजवाद की विचारधारा से जोड़ा
आजादी के बाद से ही जयप्रकाश नारायण, डॉ राममनोहर लोहिया और आचार्य नरेंद्र देव जैसे समाजवादियों ने भारत के गरीब-गुरबों के मन में एक आकर्षण पैदा किया था. जिसकी वजह से बड़ी तादाद में पिछड़े और अतिपिछड़े वोटर्स कांग्रेस की बजाए समाजवादियों के करीब आए थे, लेकिन फिर भी चुनावी अंकगणित में ये समीकरण जीत के आंकड़ों से ज्यादातर बार दूर ही रह जाता था. मुलायम सिंह यादव ने इस समीकरण में अल्पसंख्यक वोटों को जोड़ दिया. नतीजा समाजवादी राजनीति का समीकरण जीत की गारंटी बन गया. केवल चुनाव के मोर्चे पर ही नहीं, मुलायम सिंह यादव को पसंद करने वाले ये भी शान से कहते हैं कि मुलामय सिंह यादव की सेक्यूलर सियासत ने अल्पसंख्यकों का भरोसा बाबरी विध्वंस के बाद इस देश के सिस्टम पर फिर से बहाल किया.
जलवा तो कामय रहेगा
मुलायम सिंह यादव अब हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन हिन्दुस्तान की राजनीति में उनके जनाधार को, उनके बेखौफ अंदाज़ को, उनकी धर्मनिरपेक्ष छवि को और उनकी ठेठ शैली को लंबे समय तक याद रखा जाएगा. यूपी की सियासत में एक नारा भी था कि जिसका जलवा कामय है उसका नाम मुलायम है और वो जलवा उनकी मौत के बाद भी आसानी से विचलित नहीं होगा.
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