कांग्रेस: द फैसिलिटेटर ऑफ बीजेपी!
जब कांग्रेस पार्टी के पास एकजुट होकर मोदी सरकार की नीतियों का विरोध करने का मौका था, तब वह खुद में बिखरकर बहिष्कार बहिष्कार खेल रही थी. आज उत्तर भारत के अमूमन सभी राज्यों में उसका खुद का बहिष्कार कर दिया गया है. गनीमत कहिए हिमाचल प्रदेश के वोटरों का कि उन्होंने उत्तर में पंजे पर भरोसा कायम रखा.
यह कोई व्यंग्य या तंज नहीं है. यह कांग्रेस पार्टी की आज की सच्चाई है. कांग्रेस पार्टी के काम करने के तरीके से लगता है कि वह भाजपा से कंपटीशन नहीं फैसिलिटेटर का काम कर रही है. एक तो जम्मू कश्मीर से लेकर तमिलनाडु और गुजरात से लेकर मिजोरम तक कांग्रेस के कई नेता एक एक कर भाजपा का दामन थामते गए और इससे भगवा दल ने अपने क्षेत्रफल का इतना विस्तार कर लिया कि अब कांग्रेस उसके आधे तक भी नहीं पहुंच पा रही है. शायद ही कोई राज्य ऐसा बचा हो, जहां कि कोई कांग्रेस दिग्गज पार्टी छोड़कर भाजपा में नहीं गया. तुर्रा यह कि कांग्रेस ने ऐसे नेताओं को जाने भी दिया. यहां तक कि गुलाम नबी आजाद जैसे निष्ठावान नेताओं को भी पार्टी में भरोसा नहीं रहा. इसे फैसिलिटेटर नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे. यह तो केवल एक बानगी भर है. नीति और रणनीति के स्तर पर भी कांग्रेस आज की तारीख में भाजपा को फैसिलिटेट करने का ही काम कर रही है.
कांग्रेस ने आम मानस में खुद के कर्मों से यह स्थापित कर दिया है कि वह सही काम का भी विरोध करेगी. इसी साल के मध्य में देखिए, देश के संसद भवन का उद्घाटन हो रहा था और बहिष्कार के नाम पर सभी कांग्रेसी टीवी से चिपके हुए थे. वे कार्यक्रम को इसलिए देख रहे थे कि पीएम मोदी के चाल, ढाल, रंग, रूप, पहनावा आदि का शाम के टीवी डिबेट में मजाक उड़ा सकें. पीएम मोदी सैंगोल के साथ आगे बढ़े तो कांग्रेसियों को उस पर भी आपत्ति हो गई. नतीजा यह हुआ कि सैंगोल भी ट्रेंड करने लगा और आमजन कांग्रेस के प्रति असहज होते चले गए.
इसके अलावा कांग्रेस की ओर से जी20 की बैठक के दौरान राष्ट्रपति की ओर से दिए गए रात्रि भोज का बहिष्कार किया गया था. हालांकि यह बहिष्कार घोषित नहीं था और इस भोज में कांग्रेस की ओर से केवल हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ही पहुंच पाए थे. कांग्रेस का कोई और मुख्यमंत्री इस डिनर में नहीं था, जबकि राष्ट्रपति भवन की ओर से सभी राज्यों के मुख्यमंतत्रियों को आमंत्रित किया गया था. इसके अलावा लोकसभा में कांग्रेस की ओर से नेता सदन अधीर रंजन चौधरी को आमंत्रित किया गया था पर उन्होंने इसलिए जाने से मना कर दिया कि सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे को आमंत्रण नहीं भेजा गया था.
बहिष्कार की रणनीति यही तक नहीं थमी. विपक्षी दलों की ओर से जब इंडिया का गठन किया गया, तो 14 न्यूज एंकरों के बहिष्कार का ऐलान किया गया. इसके लिए बाकायदा कांग्रेस नेताओं की ओर से एक्स पर एक पोस्ट किया गया. उसके बाद धीरे धीरे कई नेताओं ने भी ऐसे पोस्ट किए और उसके बाद इन 14 न्यूज एंकर्स के कार्यक्रम में जाने से कई दलों और उसके नेताओं ने मना कर दिया था. भाजपा ने इसकी तुलना आपातकाल से कर दी और कांग्रेस को लपेटे में ले लिया था. कांग्रेस और इंडिया के इस कदम की चहुंओर निंदा हुई थी.
2021 में 26 नवंबर को जब संविधान दिवस पर संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में कार्यक्रम का आयोजन किया गया तो कांग्रेस के अलावा द्रमुक, शिवसेना, आएसपी, राकांपा, सपा, टीएमसी, भाकपा, माकपा, राजद, झामुमो और आईयूएमएल के नेताओं की ओर से बहिष्कार किया गया था. इस कार्यक्रम की अध्यक्षता तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद करने वाले थे और इसमें पीएम मोदी के अलावा कई अन्य केंद्रीय मंत्री शामिल हुए थे. बताया गया कि कांग्रेस के साथ एकजुटता दिखाने के लिए इन दलों ने बहिष्कार में साथ दिया था. 26 नवंबर 2021 को आयोजित वह कार्यक्रम स्वतंत्रता के 75वीं वर्षगांठ पर आजादी का अमृत महोत्सव का हिस्सा था. अब बताइए, उसके कार्यक्रम का बहिष्कार कर कांग्रेस ने क्या खोया और क्या पाया.
मध्य प्रदेश के सीधी में 7 नवंबर को एक चुनावी जनसभा को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने कांग्रेस पर बड़ा आरोप लगाया था. पीएम मोदी ने कहा था, कांग्रेस ने मुख्य सूचना आयुक्त के शपथ ग्रहण का इसलिए बहिष्कार कर दिया था, क्योंकि वे दलित समुदाय से आते हैं. पीएम मोदी ने यह भी कहा कि शपथ ग्रहण समारोह का न्यौता मिलने के बाद भी कांग्रेस उस समारोह में केवल इसलिए शामिल नहीं हुई थी कि जिनका शपथ ग्रहण हो रहा था वे हीरालाल समारिया दलित समाज से आते हैं. दूसरी ओर, उन्हें देश का पहला दलित मुख्य सूचना आयुक्त बनने का गौरव उन्हें प्राप्त हुआ था.
बहिष्कार की आदतों से आगे बढ़ते हुए अब यह देखते हैं कि कांग्रेसियों ने कैसे पीएम मोदी को लेकर अपशब्दों की एक तरह से झड़ी सी लगा दी. कुतर्क करते हुए कांग्रेसी कहते हैं कि भाजपाई भी राहुल गांधी और गांधी परिवार पर निशाना साधते हैं पर ऐसा बोलते वक्त वे लोग यह भूल जाते हैं कि देश के प्रधानमंत्री को उल्टा सीधा कहना किसी भी तरह से जस्टिफाई नहीं किया जा सकता. राहुल गांधी ने खुद चौकीदार चोर है का नारा लगाया और इसका क्या हश्र हुआ, यह सभी जानते हैं.
इसी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान पनौती शब्द भी काफी चर्चाओं में रहा. हुआ यह था कि भारत विश्व कप क्रिकेट का फाइनल हार गया था और पीएम मोदी सांत्वना देने डेसिंग रूम पहुंच गए थे. उन्होंने खिलाड़ियों का हौसला बढ़ाया था. कांग्रेस को इसमें सियासत दिखी और राहुल गांधी ने सांकेतिक रूप से पीएम मोदी को पनौती कह दिया. जनादेश के रूप में पनौती शब्द का फल सबके सामने है. नरेंद्र मोदी जब गुजरात के सीएम थे, तब से कांग्रेस के दिग्गज नेताओं की ओर से उन पर निजी हमले किए जाते रहे हैं. गुजरात दंगों के बाद सोनिया गांधी ने उन्हें मौत का सौदागर बोल दिया.
2014 में मणिशंकर अय्यर ने नरेंद्र मोदी को कांग्रेस कार्यालय के बाहर चाय बेचने तक का आफर दे दिया. उसके बाद हुए गुजरात चुनाव के समय मणिशंकर अय्यर ने पीएम मोदी को नीच कहकर संबोधित किया. पिछले साल गुजरात चुनाव के समय मल्लिकार्जुन खड़गे ने पीएम मोदी को रावण तक कह दिया था. हालांकि भाजपा और पीएम मोदी ने इन सब बातों का भरपूर फायदा उठाया. जब जब कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने पीएम मोदी पर निजी हमले किए, भाजपा का ग्राफ उतना ही उपर उठता चला गया.
नीतियों की बात करें तो कांग्रेस सत्ता में रहते खुद जीएसटी बिल लेकर आई थी पर जब मोदी सरकार ने उसे संसद में पेश किया तो वह विरोध में खड़ी हो गई. कांग्रेस की दलील थी कि उसकी ओर से पेश बिल ही संसद से पारित किया जाना चाहिए. इसके अलावा कांग्रेस खुद महिला आरक्षण बिल लेकर आई थी, जो संसद से पास नहीं हो सका था. वहीं मोदी सरकार जब बिल लेकर आई तो कांग्रेस उसमें तमाम खामिखां गिनाने लगी और मुसलमानों के अलावा ओबीसी के लिए आरक्षण की मांग करने लगी. हैरान करने वाली बात यह है कि उसकी ओर से पेश किए गए बिल में भी ये प्रावधान नहीं थे.
2019 में कांग्रेस की करारी हार के बाद जब राहुल गांधी ने अध्यक्षी छोड़ दी थी, उसके बाद इस साल यानी 2023 में जाकर पार्टी को नया अध्यक्ष मिल पाया है. 4 साल पार्टी बिना अध्यक्ष के चल रही थी. सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष का रोल निभा रही थीं लेकिन उस समय पार्टी में जी 20 नाम से एक गुट बन गया था, जो पार्टी की ओर से लिए गए फैसलों में खुद की अनदेखी से परेशान था और खुलेआम मीडिया में आलोचना कर रहा था. गांधी परिवार और नजदीकी नेताओं की ओर से यह कहा जाता था कि ये लोग अपने मन से ऐसा नहीं कर रहे हैं, बल्कि किसी और के इशारे पर वे ऐसा कर रहे हैं. बाद में धीरे धीरे जी 20 के कई प्रमुख नेताओं ने कांग्रेस छोड़कर दूसरी पार्टियों का दामन थाम लिया, जिससे पार्टी का थिंकटैंक कमजोर होता चला गया.
कांग्रेस पर गांधी परिवार की पकड़ कितनी मजबूत है, इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जब अशोक गहलोत को पार्टी अध्यक्ष बनाने और राजस्थान में नेतृत्व परिवर्तन के लिए पर्यवेक्षक भेजे गए तो 80 से अधिक विधायकों ने बगावत कर दी थी. शांतिलाल धारीवाल के नेतृत्व में इन विधायकों ने स्पीकर को इस्तीफे भी भेज दिए थे. अंत में आलाकमान को झुकना पड़ा था और अशोक गहलोत ने पार्टी अध्यक्ष पद के बदले राजस्थान का मुख्यमंत्री बने रहना ही मुनासिब समझा. इसी राज्य में सचिन पायलट ने भी बगावत की थी और मानेसर के एक होटल में वे कुछ विधायकों के साथ बैठे रहे. अब ऐसे राज्य में भी कांग्रेसी गहलोत से जादुगरी की उम्मीद कर रहे थे तो यह उनकी खुशफहमी ही हो सकती है.
मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड, कर्नाटक, गोवा आदि राज्यों में कांग्रेसी विधायक आसानी से टूट गए और इन राज्यों में भाजपा की बल्ले बल्ले हो गई. इसका दोष भला कांग्रेस के बदले किसी और को कैसे दिया जा सकता है. अगर केंद्र में कांग्रेस की सरकार होती और भाजपा के विधायक टूटते तो क्या वह इनकार कर देती. कांग्रेस के विधायकों की निष्ठा पार्टी के प्रति नहीं रही और समय समय पर कांग्रेसी विधायक टूटकर भाजपा की सरकार बनवाते रहे और भाजपा ने इसका पूरा फायदा उठाया. मध्य प्रदेश में अगर ज्योतिरादित्य सिंधिया की सुनी जाती तो क्या आज वहां शिवराज सिंह की सरकार होती. इसी तरह राजस्थान में अगर 2018 में सचिन पायलट को सीएम बना दिया जाता तो क्या वहां बगावत का बिगुल बजता.
चुनाव में जीत मिलती है तो कांग्रेस को ईवीएम, चुनाव आयोग सब ठीक लगते हैं लेकिन हारते ही वह ईवीएम और चुनाव आयोग के सवाल पर प्रश्न चिह्न लगाना शुरू कर देती है. मोदी सरकार के राज में ही कांग्रेस ने राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना और पंजाब आदि राज्यों में चुनाव जीता था लेकिन इसके अलावा जब भी वह हारती है तो उसकी नजर सीधे ईवीएम पर चली जाती है. चुनाव आयोग की ओर से कई बार सफाई और सुप्रीम कोर्ट में इस पर सुनवाई होने के बाद भी कांग्रेस ने ईवीएम को रिजर्व चुनावी मुद्दा बनाए रखा है. जब उसे कोई जवाब नहीं सूझता है तो वह ईवीएम लेकर चली आती है.
इसी तरह जब सुप्रीम कोर्ट की ओर से कांग्रेस और उसके नेताओं के पक्ष में फैसले आते हैं, तब तक सुप्रीम कोर्ट निष्पक्ष बना रहता है लेकिन जैसे ही कांग्रेस और उसके नेताओं के खिलाफ फैसले आए कि सुप्रीम कोर्ट पर सवालिया निशान लग जाते हैं. कांग्रेस को सभी संवैधानिक संस्थाएं उसकी सुविधानुसार अच्छे या बुरे लगते हैं. पक्ष में फैसला आया तो ठीक नहीं तो आलोचनाओं से परे कांग्रेस संवैधानिक संस्थाओं की भी नहीं मानती. इस तरह की अवसरवादी राजनीति करने वाले दलों को लगता है कि जनता को कुछ नहीं पता पर वह जनता ही है जो आपकी कथरी और करनी देखकर फैसले लेती है और राजनेताओं को आईना दिखाने का काम करती है.
अब आने वाले दिनों में लोकसभा के चुनाव शुरू होंगे तो जाहिर सी बात है कि कांग्रेस एक बार फिर से भाजपा को फैसलिटेट करने की तैयारी में जुट गई होगी. राहुल गांधी विदेश चले ही गए हैं, जैसा कि वे हर बड़े एसाइनमेंट के बाद निकल जाते हैं. आएंगे तो भारत जोड़ो यात्रा पार्ट टू शुरू होगा. फिर एक क्लाइमैक्स तैयार होगा, फिर कुछ विवाद होंगे, सवाल जवाब होंगे. कांग्रेस के लिए करने को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा है तो उधर पीएम मोदी के लिए करने को राम मंदिर का उद्घाटन है. अभी यह पता नहीं चल पाया है कि कांग्रेस को राम मंदिर के उद्घाटन का न्यौता दिया गया है या नहीं लेकिन इतना तो तय है कि अगर कांग्रेस नेताओं को बुलाया जाएगा तो बहिष्कार की राजनीति एक बार फिर चर्चा में आ जाएगी. हालांकि इस बार ऐसी उम्मीद कम है कि कांग्रेस नेताओं को राम मंदिर के उद्घाटन का न्यौता भेजा जाएगा, क्योंकि यह कोई संवैधानिक कार्यक्रम तो है नहीं. इसके अलावा पीएम मोदी के पास करने को अंतरिम बजट होगा, जिसमें केंद्र सरकार की ओर से बहुत कुछ किया जा सकता है.