प्रशांत किशोर 2 जनवरी को आमरण अनशन पर बैठे और 5 जनवरी की रात को पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. कोर्ट ने उन्हें कुछ शर्तों और 25 हजार रुपये के निजी मुचलके पर जमानत दे दी, लेकिन प्रशांत किशोर ने जमानत की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया. अब पुलिस उन्हें बेउर जेल लेकर जा रही है. प्रशांत किशोर का कहना है कि जेल में भी उनका अनशन जारी रहेगा. इस बीच 4 जनवरी को बिहार लोक सेवा आयोग ने बापू परीक्षा परिसर पर रद्द हुई परीक्षा सफलतापूर्वक फिर से संपन्न करवा ली तो अनशन का कोई मतलब नहीं रह जाता. तो क्या प्रशांत किशोर के अनशन को सफल कहा जा सकता है. शायद नहीं, क्योंकि यह अपने उद्देश्यों को पूरा करने में विफल रहा. अब प्रशांत किशोर जो आंदोलन कर रहे हैं, वो क्षतिपूर्ति करने के लिए कर रहे हैं, ऐसा लगता है. 


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प्रशांत किशोर को इस बात का गुमान है कि वे एक चुनावी रणनीतिकार हैं और ऐसा होना भी चाहिए पर यह उतना ही सच है कि जरूरी नहीं कि एक चुनावी रणनीतिकार एक अच्छा राजनीतिज्ञ भी बन पाए. अगर ऐसा होता तो चाणक्य खुद ही घनानंद से लड़ाई लड़ते. उन्हें चंद्रगुप्त बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी थी? प्रशांत किशोर को पत्रकारों से बात करते वक्त झुंझलाते हुए आप देख सकते हैं. इसे एक राजनीतिज्ञ का अच्छा लक्षण नहीं माना जाता. आपको तर्कों से अपनी बात रखनी होती है न कि किसी पत्रकार को उल्टा सीधा बोलकर. 


प्रशांत किशोर बिहार की बदहाली के लिए नेताओं से ज्यादा जनता को ताना देते हैं, क्योंकि इसी जनता ने ऐसे नेताओं को चुना है. वे नेताओं को डिक्टेट करते हैं. बताया जाता है कि शेख़पुरा हाउस में भाषण देते हुए प्रशांत किशोर ने माइक फेंक दिया था. पार्टी के कार्यकर्ता और किसी कार्यालय के स्टाफ़ में फर्क है. कार्यकर्ता वेतनभोगी कर्मचारी नहीं है. प्रशान्त के अग़ल-बग़ल में नेताओं को बैठने नहीं दिया जा रहा है. रही सही कसर करोड़ों की लग्ज़री वैनिटी वैन ने बिगाड़ दिया. 


प्रशांत किशोर ने ग्राउंड अच्छा तैयार किया था. 2 साल की पदयात्रा का लोगों में सकारात्मक मैसेज गया था. इसका रिजल्ट भी सामने आया, लेकिन प्रशांत किशोर ने कुछ गलतियां की, जिससे उनके अपनी पार्टी के नेता ही नाराज हो गए. प्रशांत किशोर पार्टी चलाते वक्त रणनीतिकार बन जाते हैं, यही उनकी सबसे बड़ी गलती है. टीम तो इनके पास भी थी और अब भी है. लेकिन प्रशान्त इनको जोड़कर रखने में नाकाम रहे. यदि इनलोगों को इस्तेमाल हुआ होता, इनको अधिकार दिए जाते तो यह अनशन आज वाक़ई में आंदोलन बन चुका होता.


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कुछ लोग प्रशांत किशोर के आमरण अनशन की तुलना अन्ना आंदोलन से कर रहे थे, लेकिन प्रशांत किशोर 4 दिन में 40 लोगों की संख्या को बढ़ा नहीं पाए. पहले से लोग कम ही हुए, बढ़े नहीं. अनशन पर बैठना है तो बैठे रहो. बीपीएससी को री-एग्ज़ाम लेना था, पटना प्रशासन ने पीके को मुग़ालते में रख कर शांतिपूर्ण ढंग से परीक्षा ले लिया. अन्ना जैसा आंदोलन पीके का होता तो गांधी मैदान भर चुका होता. दिल्ली के रामलीला मैदान का असर न केवल दिल्ली, बल्कि पूरे देश में था. योजनाबद्ध तरीक़े से आंदोलन आगे बढ़ा था, लेकिन प्रशांत किशोर ऐसा करने में नाकाम रहे.


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