किसी को मां-बाप ने बेचा, तो किसी ने की मजदूरी, जानें झारखंड की स्टार फुटबॉलर बेटियों की कहानी
देश-विदेश के फुटबॉल ग्राउंड पर चमक बिखेरने वाली इन लड़कियों में से किसी को उसके गरीब-अनपढ़ पिता ने 25 हजार रुपये में बेच दिया था, तो किसी ने खुद ईंट भट्ठे पर मजदूरी करते हुए फुटबॉल खेलना जारी रखा.
रांची: झारखंड में संघर्षो की कंटीली-पथरीली जमीन पर नेशनल-इंटरनेशनल लेवल की फुटबॉलर लड़कियां उदित हो रही हैं. देश-विदेश के फुटबॉल ग्राउंड पर चमक बिखेरने वाली इन लड़कियों में से किसी को उसके गरीब-अनपढ़ पिता ने 25 हजार रुपये में बेच दिया था, तो किसी ने खुद ईंट भट्ठे पर मजदूरी करते हुए फुटबॉल खेलना जारी रखा.
किसी को भोजन के नाम पर सिर्फ भात-नमक नसीब होता था तो किसी की मां आज भी दूसरे के घरों में जूठे बर्तन धोती है. किसी ने नंगे पांव दौड़ना जारी रखा तो किसी ने शॉर्ट्स पहनने पर गांव वालों की फब्तियां बर्दाश्त कर भी अपने भीतर फुटबॉल का जुनून बनाये रखा. देश-विदेश से खेलकर लौटने वाली इन लड़कियों के घरों की माली हालत आज भी बेहतर नहीं है, लेकिन इसके बावजूद इन्हें रोल मॉडल मानकर रांची के ओरमांझी से लेकर गुमला के चैनपुर प्रखंड तक सैकड़ों लड़कियां हर रोज फुटबॉल ग्राउंड में पसीना बहाती दिख जायेंगी.
रांची के कांके स्थित हलदमा गांव की प्रियंका बेहद गरीब परिवार में जन्मी. दो वक्त का भोजन तक मुश्किल था. उसके माता-पिता ने एक दलाल के बहकावे पर महज 12 वर्ष की उम्र में राजस्थान के एक अधेड़ से उसकी शादी के लिए 25 हजार रुपये में सौदा कर लिया था. समय रहते कुछ लोगों को इसकी जानकारी मिली और प्रियंका को बिकने से बचा लिया गया. बाद में उसने फुटबॉल मैदान जाना शुरू किया. वह अब अंतरराष्ट्रीय स्तर की फुटबॉल खिलाड़ी है. इंग्लैंड, डेनमार्क सहित कई देशों में जाकर खेल चुकी है. डेनमार्क में 2018 के दाना कप फुटबॉल टूनार्मेंट में भारतीय महिला टीम विजेता रही थी. प्रियंका सहित झारखंड की आठ लड़कियां इस टीम का हिस्सा रही थीं.
ओरमांझी प्रखंड के इरबा पाहन टोली की रहने वाली 24 वर्षीया अंशु कच्छप ने 2018 में भारतीय महिला फुटबाल टीम की ओर से इंग्लैंड में आयोजित इंटरनेशनल टूनार्मेंट में शानदार प्रदर्शन किया था. वह 2019 में डेनमार्क में आयोजित डाना कप की विजेता भारतीय टीम में भी शामिल थीं. अंशु के पिता नहीं हैं. मां हड़िया (झारखंड में चावल से बनाया जाने वाला एक पेय पदार्थ) बेचती है. अंशु कहती है कि वह सुबह चार बजे उठती है. बर्तन धोती है, झाड़ू लगाती है, रात का बचा खाना खाकर चार किलोमीटर दूर फुटबॉल खेलने और आस-पास के गांवों की लड़कियों को ट्रेनिंग देने जाती हैं. इन दिनों वह ओरमांझी में 160 से ज्यादा बच्चों और लड़कियों को फुटबॉल की कोचिंग देती हैं. ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन के साथ वह डी श्रेणी की लाइसेंसधारी फुटबॉल कोच के रूप में संबद्ध हैं. इसी महीने यूनिसेफ की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में भारत के महान क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर ने अंशु कच्छप से उसके संघर्ष की कहानी सुनी तो बेहद प्रभावित हुए. सचिन ने अंशु से कहा कि वह चुनौतियों से कभी हार नहीं मानी और अपने लक्ष्य पर डटी रहे.
मार्च महीने में गुमला के छोटे से गांव बनारी गोराटोली की रहने वाली अष्टम उरांव का चयन भारत की सीनियर महिला फुटबॉल टीम में हुआ था और इसके बाद उसे अंडर-17 के नेशनल कैंप में चुना गया. अष्टम उरांव के माता-पिता दोनों मजदूरी करते हैं. थोड़ी खेती भी है. घर में अष्टम के अलावा उसकी तीन बहनें और एक भाई है. अष्टम को बचपन से फुटबॉल खेलना पसंद था. माता-पिता ने आर्थिक परेशानियों के बावजूद उसे इस उम्मीद के साथ हजारीबाग के सेंट कोलंबस कॉलेजिएट स्कूल में भेजा कि वहां पढ़ाई के साथ-साथ फुटबॉल की प्रैक्टिस का भी मौका मिलेगा. उसके पिता हीरा उरांव कहते हैं कि लोग शुरू से उनकी बेटी के अच्छे खेल की तारीफ करते थे. स्कूल स्तर की कई प्रतियोगिताओं में उसने इनाम भी जीते. उन्होंने अपनी सभी संतानों को कहा है कि अपनी इच्छा से पढ़ाई-लिखाई, खेलकूद का कोई भी रास्ता चुनें, वह मजदूरी कर सबकी जरूरतें पूरी करेंगे.
इसी साल जनवरी में एएफसी एशिया कप फुटबॉल के लिए भारतीय सीनियर महिला टीम में चुनी गयी सुमति गुमला के सिसई की रहने वाली है. उसन अंडर-17 में पिछले साल महाराष्ट्र के कोल्हापुर में आयोजित नेशनल टूनार्मेंट में महज चार मैच में 18 गोल किए. सुमति के पिता किसान हैं. माली हालत बहुत अच्छी नहीं, लेकिन तमाम मुश्किलों को किक करते हुए वह इंटरनेशनल फुटबॉलर बनी.
नीतू लिंडा रांची के कांके ब्लॉक अंतर्गत हलदाम गांव की रहने वाली है. वह अंडर-18 और अंडर-19 में भारतीय महिला फुटबॉल टीम में शामिल रही हैं. जमशेदपुर में आयोजित सैफ अंडर 18 फुटबॉल चैंपियनशिप और उसके बाद बांग्लादेश में आयोजित अंडर-19 सैफ चैंपियनशिप में उसने दो-दो गोल किए थे. पर इंटरनेशनल लेवल पर पहुंचने के लिए नीतू को कई मुश्किलों के बीच रास्ता बनाना पड़ा. वह जब नौ साल की थी, तभी उसकी मां गुजर गयी. उसके पिता दूसरे के खेतों में तो बड़े भाई ईंट भट्ठों में मजदूरी करते हैं. वह रांची स्थित साई के खेल सेंटर में रहकर फुटबॉल की ट्रेनिंग ले रही है. नीतू के बारे में उसकी बड़ी बहन मीतू लिंडा बताती है कि वह अहले सुबह उठकर पूरे घर के लिए खाना बनाती थी. कई बार खेत और ईंट भट्ठे में मजदूरी करने भी जाती थी. अनिता कुमारी को बीते अप्रैल में भारतीय महिला फुटबॉल के अंडर-17 के नेशनल कैंप में चुना गया. इसके पहले उसका सेलेक्शन जमशेदपुर में आयोजित अंडर 18 सैफ चैंपियनशिप के लिए भी हुआ था.
अनिता राज्य टीम की ओर से खेलते हुए अब तक डेढ़ दर्जन से गोल कर चुकी है. रांची के चारी हुचिर गांव की रहने वाली अनिता की मां बताती हैं कि उनकी पांच बेटियां हैं. उन्होंने अकेले मजदूरी कर पूरा परिवार चलाया, क्योंकि उनके पति शराब के नशे के चलते घर-परिवार की कोई परवाह नहीं करते थे. वह बताती हैं कि अकेले मजदूरी से इतने पैसे नहीं जुटते थे कि सबके लिए दोनों वक्त भर पेट भोजन का इंतजाम हो. उन्होंने चावल, पानी और नमक खिलाकर पांचों बेटियों को पाला. तीन को पढ़ा लिखाकर उनकी शादी कर दी. चौथी बेटी अनिता और उसकी छोटी बहन की फुटबॉल में दिलचस्पी थी. अनिता ने नंगे पांव फुटबॉल के मैदान पर पसीना बहाया. पास-पड़ोस के लोग ताने देते थे. कहते थे कि हाफ पैंट पहनाकर बेटी को बिगाड़ रही है. आज जब बेटी की सफलता की कहानियां अखबारों में छपती है तो लोग तारीफ करते हैं.
इस साल अंडर-17 के नेशनल कैंप में चुनी गयीं खिलाड़ियों में सुधा अंकिता तिर्की भी हैं. वह गुमला के अति उग्रवाद प्रभावित चैनपुर प्रखंड के दानापुर गांव की रहने वाली है. उनके परिवार वालों ने मुश्किल माली हालात के बावजूद बेटी को फुटबॉल खेलने के लिए प्रोत्साहित किया. नेशनल कैंप में शामिल रही सिमडेगा के जमुहार बाजार टोली की रहने वाली पूर्णिमा के पिता जीतू मांझी और मां चैती देवी मजदूरी करते हैं. पूरा परिवार मिट्टी के कच्चे मकान में रहता है और घर में एक अदद टीवी तक नहीं.
रांची जिले के ओरमांझी प्रखंड की रहने वाली सीमा कुमारी को फुटबॉल ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी तक पहुंचाया है. सीमा साल 2012 में ओरमांझी में महिला फुटबॉलरों को ट्रेनिंग देने वाली 'युवा' नामक संस्था की फुटबॉल टीम की ओर से खेलती थीं. फुटबॉल ने उसे इतना कॉन्फिडेंस दिया कि उसने शिक्षा के अधिकार और बाल विवाह के खिलाफ जंग छेड़ी. फुटबॉल खेलने के दौरान शॉर्ट्स पहनने को लेकर उसका मजाक भी उड़ाया गया, लेकिन उसने किसी की परवाह नहीं की. पिछले साल उसे उच्च शिक्षा के लिए हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फुल स्कॉलरशिप प्रोग्राम के लिए चुना गया. सीमा के माता-पिता निरक्षर हैं. वो खेती और एक धागा कारखाने में मजदूरी करते हैं.
झारखंड की मौजूदा महिला फुटबॉल टीम भी संघर्षों की ऐसी ही पथरीली-कंटीली राहों से निकलकर आयी खिलाड़ियों से सजी है. इस टीम ने इसी साल जून में युवा मामले एवं खेल मंत्रालय भारत सरकार की ओर से पंचकुला (हरियाणा) में आयोजित खेलो इंडिया यूथ गेम्स में झारखंड की बेटियां उपविजेता का खिताब जीता था.
(आईएएनएस)