पटना: राजनीति का बैटलग्राउंड माने जाने वाले बिहार में इसी साल चुनावी संग्राम है. इस बार के चुनाव में कई पार्टियों के प्रमुख चेहरे चुनावी बिसात खेलने के लिए अपने धागे पर मांझा चढ़ाने में जुट गए हैं. हालांकि फिर भी बिहार की जब बात होती है तो खास तौर पार तीन प्रमुख पार्टियों को ही बात होती है.


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बीजेपी, आरजेडी और जेडीयू. एनडीए ने नीतीश कुमार को एक बार फिर से गठबंधन का सीएम उम्मीदवार बता कर अपने पाले से गेंद को खिसका दिया है, लेकिन दूसरी ओर आरजेडी के नेतृत्व वाली महागठबंधन में इस बात पर ही ठन गई है कि आखिर इतने चेहरों में बिहार के सीएम पद का लायक चेहरा कौन होगा. 


बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले ऐसा नहीं है कि आरजेडी कुछ तैयारियां नहीं कर रही. पार्टी में कुछ न कुछ मूल बदलाव हो ही रहे हैं, लेकिन आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव की गैर-मौजूदगी में एक के बाद एक समस्याएं पिटारे से निकलती ही आ रही हैं. एक-एक कर समझते हैं, कौन सी हैं वह मुश्किलें जो आरजेडी को बैकफुट पर ला सकती हैं. 


महागठबंधन को नहीं स्वीकार तेजस्वी का नेतृत्व
दरअसल, आरजेडी के लिए सबसे पहली मुसीबत तो महागठबंधन में उनकी कम होती साख ही है. लोकसभा में मुंह के बल गिरी महागठबंधन के सभी घटक दलों ने तेजस्वी यादव के नेतृत्व पर ही इशारों-इशारों में सवाल करने खड़े कर दिए हैं. तेजस्वी यादव के विपरीत महागठबंधन में कई नेता खड़े हो गए हैं जो विपक्ष की ओर से नेतृत्व करने की चाह रखते हैं.


कुछ नाम तो समय-समय पर मीडिया की खबरों में सुर्खियों में रहे. आरएलएसपी के उपेंद्र कुशवाहा का महागठबंधन में लॉबी करने की खबरें, हम प्रमुख जीतनराम मांझी की ओर से 80 सीटों पर चुनाव में दांवा ठोंकने की बात, यह सब महागठबंधन में आंतरिक दबाव बनाने के उदाहरण हैं. 


पार्टी के पुराने नेताओं में शुरू हो गई है तनातनी
इसके अलावा आरजेडी के पुराने नेताओं में रार भी एक बड़ी समस्या बनती जा रही है. दरअसल, हाल ही में जगदानंद सिंह को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने के बाद से ही आरजेडी के अंदर अनुशासनात्मक बदलाव देखने को मिले. राजनीतिक हलकों में चर्चा उठी कि इससे सबसे ज्यादा दिक्कत पार्टी के एक और रसूखदार नेता रघुवंश प्रसाद सिंह को हुई. सूत्रों के हवाले से खबर मिली थी कि लोकसभा चुनाव के दौरान ही रघुवंश प्रसाद सिंह थोड़े उखड़े हुए थे. अब हो रहे बदलावों से भी वह खुश नजर नहीं आ रहे.



दरअसल, आरजेडी में जिस तरह के अनुशासानात्मक बदलाव किए जा रहे हैं, उसपर रघुवंश प्रसाद सिंह का मानना है कि यह सब पार्टी की परंपरा और पुराने तौर-तरीकों से समझौता करने जैसा है. इसके अलावा पार्टी में असल बदलाव की जरूरत सभी सदस्यों से मिलकर बातचीत करने की है न कि गोलमेज पर बैठकर चार लोगों के फैसले को पूरी पार्टी पर थोपने की. इससे पार्टी को ज्यादा नुकसान हो रहा है.


दोनों भाईयों ने बांट ली है जिम्मेदारियां
लगभग डेढ़ दशक तक लालू यादव के रसूख के साथ सत्ता पर काबिज रही आरजेडी में बिखराव के अन्य और भी कारण हैं. पारिवारिक कलह का दंभ आरजेडी को लोकसभा में नुकसना पहुंचा चुका है. अब जैसा की देखने को भी मिल रहा है कि तेजस्वी और तेजप्रताप यादव ने अपनी-अपनी जिम्मेदारियां बांट ली हैं.



एक ओर तेजस्वी जहां बिहार में घूम-घूम कर पुराने विश्वासी वोटरों को लुभाने में लगे हुए हैं, तो वहीं दूसरी ओर तेजप्रताप यादव ने युवा मोर्चे को मजबूत करने कि जिम्मेदारी उठाई है जो कल को कार्यकर्ता के रूप में खासी भूमिका निभा सकते हैं.


अब देखना यह है कि पार्टी विधानसभा चुनाव से पहले पुराने फॉर्म में वापस आती है या यूं ही बैकफुट पर बनी रहेगी.