चाईबासा: झारखंड के चक्रधरपुर के पुरानी बस्ती इलाके में आदि दुर्गा पूजा (Durga Puja) कमेटी बीते 107 वर्षों से दुर्गा पूजा का आयोजन करती आ रही है. नाम की तरह यह पूजा आदि काल की तरह आज भी संपन्न होता है. खासकर विजयदशमी के दिन मां दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन सबसे अद्भुत होता है.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

चक्रधरपुर की पुरानी बस्ती में वर्ष 1912 से मां दुर्गा की पूजा अर्चना की जा रही है. इससे पहले चक्रधरपुर-पोडाहाट के राजा अर्जुन सिंहदेव और उनके पूर्वज इस पूजा का आयोजन अपने राजमहल में करते थे. 1912 में इस पूजा को आयोजित करने का दायित्व आम जनता को सौंप दिया गया.



पौराणिक परंपरा आज भी जीवित है. सबसे खास बात यह है कि विजयदशमी के दिन आदि काल की तरह हाथों में मशाल लिए सैकड़ों लोगों के जुलूस के साथ रात के अंधेरे में मां दुर्गा की विशाल प्रतिमा को कंधे पर उठाकर लोग "जय दुर्गे" के नारों के साथ विसर्जित करते हैं. विसर्जन में डिस्को-डीजे के आवाज नहीं बल्कि ढोल नगाड़ों की गूंज होती है. एक अद्भुत नजारा होता है जिसे कैमरे में कैद करने के लिए सभी व्याकुल होते हैं.


लोगों का कहना है कि यह परंपरा ब्रिटिश शासन के खिलाफ फूंकी गई विद्रोह के कारण शुरू हुई थी. राजा अर्जुन सिंहदेव ने अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंका था. जब अंग्रेजी शासन राजा को गिरफ्तार करने राजमहल पहुंचा, तब ऐसी ही एक विशाल मशाल जुलूस निकाली गई थी.


मशाल जुलुस के साथ मां दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन देखने के लिए सैकड़ों लोग दूर-दराज क्षेत्रों से चक्रधरपुर पहुंचते हैं. आश्चर्य की बात है कि इतने विशाल प्रतिमा को कन्धों पर उठाकर विसर्जन करने वाले श्रद्धालुओं को दर्द तक का आभास नहीं होता.


चक्रधरपुर के लिए आदि दुर्गा पूजा समिति एक गौरव है, जिसने आज तक पौराणिक परम्पराओं को जीवित रखा है. इस परंपरा के जीवित रहने से हमारी संस्कृति तो जीवित है ही, साथ ही साथ अंग्रेजों के खिलाफ फूंकी गई विद्रोह का एक इतिहास भी कायम है.