नई दिल्ली : अभी भी देश में ऐसे लोग हैं, जो विदेशी हमलावरों और भारत पर तलवार या बंदूक के जोर पर राज करने वालों के गुण गाते हैं, कोई मुगलों की जीडीपी का बखान करता है, तो ऐसे भी लोग हैं जो अंग्रेजों की तारीफों के पुल बांधते नहीं थकते. अंग्रेजी राज में भी अंग्रेजी टुकड़ों पर पलने वाले ऐसे बहुत लोग थे, जिन्हें अंग्रेजी राज का फायदा मिल रहा था और ये लोग देश को बताने में जुटे थे कि कैसे अंग्रेजों ने रेल लाइन बिछाई, यूनीवर्सिटीज खुलवाईं और देश कैसे समृद्ध कर रहे हैं वो. तब भारत का एक बूढ़ा नेता उठ खड़ा हुआ जिसने बाकायदा आंकड़ों के साथ केवल अपने देशवासियों को नहीं बल्कि दुनिया भर के लोगों के सामने ब्रिटेन को एक्सपोज किया. ये थे ‘ग्रांड ओल्डमैन ऑफ इंडिया’ दादा भाई नोरोजी.


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ब्रिटिश संसद में पेश की थी वेल्थ ड्रेन थ्योरी
वो गुजरात के नवसारी के पारसी व्यापारी थे, बड़ौदा के गायकवाड़ महाराज के दीवान भी रहे. वो पहले ऐसे एशियाई थे जो इंग्लैंड की संसद में चुनकर पहुंचे और 1892 से 1895 तक संसद सदस्य रहे. आज की तारीख में उनका सबसे बड़ा योगदान यही माना जाता है कि कैसे उन्होंने ‘वेल्थ ड्रेन थ्योरी’ के जरिए दुनियां को समझाया कि ब्रिटेन भारत को शिक्षित और विकसित करने की जो जिम्मेदारी का ढोल पीट रहा है, वो पाखंड है, असल में इंगलैंड धीरे धीरे भारत की दौलत ब्रिटेन में अलग अलग तरीके ले जाकर खुद धनवान बन रहा है, और भारत गरीब बना हुआ है.


‘पॉवर्टी एंड अनब्रिटिश रूल ऑफ इंडिया’ 
उन्होंने अपनी किताब ‘पॉवर्टी एंड अनब्रिटिश रूल ऑफ इंडिया’ में विस्तार से बताया कि कैसे रेलवे लाइन बिछाने का फायदा केवल अंग्रेजों को हुआ है क्योंकि इसके जरिए वो कच्चा माल दूरदराज के इलाकों से बंदरगाहों तक पहुंचा पाते हैं और फिर उसे ब्रिटेन भेज देते हैं, दूसरा ये कि कैसे रेलवे के जरिए उनकी सेना देश के किसी भी इलाके में बड़ी तेजी से पहुंच सकती है. तीसरी बड़ी बात उन्होने ये बताई कि रेलवे में जिन ब्रिटिश व्यापारियों ने अपने पैसे निवेश किए, उन्हे पांच फीसदी गांरटीड रिटर्न का वायदा मिला हुआ है, जोकि उस वक्त काफी बड़ा होता था. उन्होंने ये भी बताया कि कैसे ब्रिटेन ने भारत के उद्योग धंधों को चौपट करके उसे केवल कच्चे माल का उत्पादक बनाकर रख दिया है, ताकि वो सस्ते में यहां से कपास जैसा कच्चा माल खरीदें और उसी से बने पक्के उत्पाद जैसे कपड़े, महंगे दामों में भारतीयों को ही ब्रिटेन से भेजकर खरीदने को मजबूर करें.


'समाज सुधारक और उदारवादी नेता दादा भाई'
1886, 1893 और 1906, इन तीन साल वो कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे. तब कांग्रेस कई संगठनों का एक साझा मंच था, जो साल में एक बार मिलता था. उन्होंने लंदन में ‘लंदन इंडियन सोसायटी’ की स्थापना की, उदार अंग्रेजों से भारत के बारे में चर्चा की और उन्हें भारत में अंग्रेजी क्रूरता के बारे में बताना शुरू किया. वो उदारवादी थे, इसलिए सामाजिक सुधारों पर उनका काफी फोकस था. वो अंग्रेजों के बीच रहकर भारतीयों की मदद और अंग्रेजी अव्यवस्थाओं और अत्याचारों को कानून के दायरे में रहकर उजागर करते थे.


बाइबिल की शपथ लेने से किया था इंकार
जब वो ब्रिटिश संसद के लिए चुने गए तो उन्होंने बाइबिल की शपथ लेने से साफ मना कर दिया और अपने एक पारसी ग्रंथ पर हाथ रखकर ही शपथ ली. कांग्रेस के गरम और नरम दल दोनों के ही नेता उनकी बड़ी इज्जत करते थे, चाहे वो तिलक हों, गोखलें हों या फिर महात्मा गांधी. कुछ दिनों तक मैडम भीकाजी कामा भी उनकी सचिव बनकर वहां रहीं. ये अलग बात है कि उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के खिलाफ किसी भी हिंसक विरोध को समर्थन नहीं किया, लेकिन ये भी सही है कि उन्होंने अंग्रेजों को उन्हीं के बीच आइना दिखाने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी.  


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