इतनी गहराई से जुड़ा था आजादी की जंग में मैडम भीकाजी कामा और वीर सावरकर का रिश्ता
देश की आजादी के लिए मैडम कामा ने पेरिस और सावरकर ने लंदन से जो लड़ाई लड़ी, उसके बारे में कम ही लोग जानते हैं. आज की पीढ़ी मैडम कामा के बारे में बस इतना ही जानती है कि कैसे जर्मनी (Germany) के स्टुटगार्ट की इंटरनेशनल सोशलिस्ट कॉन्फ्रेंस में उन्होंने भारत (India) का राष्ट्रीय झंडा (National Flag) पहली बार किसी विदेशी मंच पर फहराया था.
नई दिल्ली: भारत में 74वें स्वतंत्रता दिवस को बड़ी शान से मनाने की तैयारी चल रही है. देश को आजादी दिलाने में अनगिनत लोगों ने जीवन का बलिदान दिया. ऐसी ही एक महान हस्ती मैडम भीकाजी कामा (Bhikaiji Cama) की आज पुण्यतिथि है. आजादी की लड़ाई में उनकी भूमिका और समर्पण से हर देशवासी को प्रेरणा मिलती है. मैडम भीकाजी कामा को तैयार करने में वीर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) का अहम योगदान था.
मैडम भीकामी कामा का वीर सावरकर से काफी गहरा रिश्ता था, देश की आजादी के लिए मैडम कामा ने पेरिस और सावरकर ने लंदन से जो लड़ाई लड़ी, उसके बारे में कम ही लोग जानते हैं. आज की पीढ़ी मैडम कामा के बारे में बस इतना ही जानती है कि कैसे जर्मनी (Germany) के स्टुटगार्ट की इंटरनेशनल सोशलिस्ट कॉन्फ्रेंस में उन्होंने भारत (India) का राष्ट्रीय झंडा (National Flag) पहली बार किसी विदेशी मंच पर फहराया था. लेकिन बहुतों को नहीं पता होगा कि उन्हें स्टुटगार्ट भेजने , झंडे को डिजाइन करने और वहां दिए भाषण को तैयार करने के पीछे भी सावरकर का दिमाग था. जिसके बाद में सावरकर की गिरफ्तारी इंटरनेशनल कोर्ट (International Court) में भारत का पहला केस बन गई थी.
दरअसल मैडम कामा सम्पन्न बिजनेस परिवार से थीं, एक अमीर पारसी वकील से उनकी शादी मुंबई (Mumbai) में हुई. लेकिन वो वकील अंग्रेज परस्त था इसलिए बात जमी नहीं और दोनों अलग हो गए. तब से मैडम कामा ने समाजसेवा और देश सेवा को अपना मिशन बना लिया. प्लेग पीड़ितों की सेवा करते वक्त वो खुद भी प्लेग की चपेट में आकर गंभीर रुप से बीमार हो गईं, इसके बाद 1902 में उन्हें इलाज के लिए लंदन भेजा गया.
यहां वो दो बड़ी हस्तियों के सम्पर्क में आईं. एक दादा भाई नोरोजी, जो लंदन में ओवरसीज कांग्रेस की जिम्मेदारी संभाल रहे थे और दूसरे श्याम जी कृष्ण वर्मा, जो विदेशी सरजमीं पर क्रांतिकारियों के सबसे बड़े गॉडफादर थे. जिन्होने लंदन में अपनी जिंदगी भर की जमापूंजी से ‘इंडिया हाउस’ नाम की इमारत बनवाई थी.
वो दादाभाई नोरोजी की कुछ समय के लिए सेक्रेट्री रहीं और श्यामजी कृष्ण वर्मा के संगठन ‘होम रूल सोसायटी’ से जुड़ गईं. 1906 में तिलक की सिफारिश पर इंडिया हाउस की शिवाजी स्कॉलरशिप पर लंदन पहुंचे विनायक दामोदर सावरकर से उनकी पहली मुलाकात हुई. इंडिया हाउस में सावरकर से मिलकर भीकाजी कामा को लगा कि यही वो व्यक्ति है, जो भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति दिला सकता है.
पिछले 10 साल से हो रही इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस 1907 में जर्मनी के स्टुटगार्ट मे होनी थी. सावरकर की योजना थी कि हर इंटरनेशनल मंच पर भारत की गुलामी का मुद्दा उठाया जाए, जिससे अंग्रेजी सरकार एक्सपोज हो. सावरकर ने मैडम कामा को वहां जाने के लिए तैयार किया और उनके साथ भेजने के लिए श्यामजी कृष्ण वर्मा के सहयोगी और होम रूल सोसायटी के वाइस प्रेसीडेंट एस आर राना को तैयार किया.
उसके बाद सावरकर और मैडम कामा ने मिलकर वो राष्ट्रीय ध्वज डिजाइन किया, जिसे खुद श्यामजी कृष्ण वर्मा की पत्नी भानुमति और मैडम कामा ने सिला था. तीन रंगों के इस झंडे में सबसे ऊपर हरा रंग रखा गया उस स्ट्रिप में 8 कमल के फूल लगाए गए, जो भारत के 8 राज्यों के प्रतीक थे, बीच में भगवा रंग की स्ट्रिप थी उस पर देवनागरी में ‘वंदेमारतम’ लिखा था. झंडे के सबसे नीचे शक्ति का प्रतीक लाल रंग था जिसकी पट्टी पर सूरज और चांद बने हुए इसमें ये संदेश छुपा था कि जब तक सूरज और चांद रहेंगे, भारत आजाद रहेगा.
इस तरह के तीन झंडे तैयार किए गए, 2 राना को दिए गए और 1 को अपने कपड़ों में छुपाकर मैडम कामा जर्मनी के कार्यक्रम में ले गई थीं. उन्हीं दिनों मैडम कामा पेरिस शिफ्ट हुईं जहां उन्होने पेरिस इंडिया सोसायटी के नाम से एक संगठन खड़ा कर दिया.उन दिनों इंगलैंड और फ्रांस की इतनी दोस्ती नहीं थी, इसलिए पेरिस क्रांतिकारियों का गढ़ बन चुका था. सावरकर खुद जर्मनी इसलिए नहीं गए क्योंकि तब वो अपनी किताब ‘1857 प्रथम स्वातंत्र्य समर’ की रिसर्च कर रहे थे.
21 अगस्त को इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांफ्रेंस, स्टुटगार्ट में मैडम कामा ने वो भारतीय राष्ट्रीय झंडा फहराया और सबको कहा कि लोग खड़े होकर इसे सम्मान दें क्योंकि ये भारत का राष्ट्रीय ध्वज है, हर कोई खड़ा हुआ तब उन्होंने सावरकर द्वारा तैयार वो भाषण पढ़ा, जिसमे भारत की आजादी की बात की गई थी, बाद में इसी वजह से अमेरिका के लोकतंत्र समर्थकों ने मैडम कामा को अमेरिका आमंत्रित किया था.
इधर कामा दोबारा लंदन तब लौटीं जब सावरकर के शिष्य मदन लाल धींगरा ने कर्नल वायली को लंदन में मार दिया था, उस दौरान कामा ने ‘मदन तलवार’ नाम से लंदन के अखबारों में एक सीरीज लिखनी शुरू कर दी. इधर सावरकर अचानक काफी बीमार हो गए और कामा के पीछे पीछे वो भी पेरिस आ गए. जहां करीब 2 महीने तक मैडम कामा ने नर्स बनकर उनकी देखभाल की. वहीं से सावरकर ने बम मैन्युल और नासिक के कलेक्टर जैक्सन की हत्या के लिए अनंत कन्हेरे के पास पिस्तौल भिजवाईं. सावरकर का नाम जैक्सन हत्याकांड में भी सामने आ चुका था.
ब्रिटिश पुलिस तेजी से उन्हें खोज रही थी, सावरकर को लग रहा था कि वो अपनी लड़ाई लंदन से ही लड़ सकते हैं, उनको लगा कि इंडिया हाउस आना जरुरी है. जबकि लाला हरदयाल और मैडम कामा जैसे लोगों ने उन्हे रोकने की कोशिश की. वो उन्हें स्टेशन तक छोड़ने भी आए, लेकिन इंग्लैंड पहुंचते ही स्टेशन पर सावरकर गिरफ्तार हो गए. फिर सावरकर को जहाज से भारत ले जाया गया तो मैडम कामा ने फ्रांस के एक पोर्ट पर उन्हे छुड़ाने की योजना बनाई. सावरकर जहाज के बाथरूम से कूदे भी, लेकिन मैडम कामा और उनके साथ अय्यर को 10 से 15 मिनट की देर हो गई और फ्रांस से ही सावरकर को फिर गिरफ्तार कर लिया गया.
तब मैडम कामा ने फ्रांस के उस शहर के मेयर से शिकायत करते हुए कहा कि ये फ्रांस का अपमान है कि बिना सूचना के ब्रिटिश पुलिस आपके क्षेत्र से किसी को गिरफ्तार कैसे कर सकती है. मैडम कामा ने फ्रांस की सरकार के सामने ये मुद्दा उठाया, इंटरनेशनल मीडिया में लिखा और आखिरकार फ्रांस की सरकार सावरकर के मुद्दे पर ब्रिटेन के खिलाफ इंटरनेशनल कोर्ट में चली गई. ये किसी भारतीय का पहला मामला था, जो इंटरनेशनल कोर्ट में पहुंचा था जिसके लिए मैडम कामा ने काफी मेहनत की थी.
ये अलग बात है कि बाद में पहले विश्व युद्ध के दौरान 1914 में फ्रांस ब्रिटेन की दोस्ती हो गई, सावरकर को छुड़ाना और मुश्किल होता चला गया. एक बार जर्मनी की मदद से अंडमान में एक शिप भी भेजा गया, लेकिन कोई कामयाबी नहीं मिली. इधर मैडम कामा अकेली पड़ गईं, पेरिस में भी ब्रिटिश सरकार के कहने पर उन पर तमाम पाबंदियां लगा दी गईं. उनकी तबियत भी काफी खराब रहने लगी. लेकिन फिर भी उन्होंने सावरकर के छोटे भाई नारायण राव सावरकर की आगे की पढ़ाई के लिए वित्तीय मदद की. ये अलग बात है कि उनकी आर्थिक स्थिति और सेहत लगातार गिरती जा रही थी.
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पैरालिसिस के अटैक ने उनकी हालत और खराब कर दी थी. इधर राना को परिवार के साथ किसी कैरेबियन द्वीप पर सरकार ने निर्वासित कर दिया. श्याम जी कृष्ण वर्मा भी स्विटजरलैंड चले गए थे. आखिरकार उनकी गिरती हालत देखकर सरकार ने उन्हें भारत आने की इजाजत दी, तब वो नवम्बर 1935 में मुंबई पहुंचीं. और 9 महीने बाद 13 अगस्त 1936 को आजादी का ख्वाब दिल में लिए ही इस दुनियां से विदा हो गईं. उन्हे इस बात की खुशी थी कि आखिरी वक्त में वो भारत पहुंच गईं थी, जिसके लिए श्याम जी कृष्ण वर्मा तरस गए थे, जिनकी अस्थियां आजादी के 55 साल बाद प्रधानमंत्री मोदी स्विटजरलैंड से लेकर आए थे.
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