Bakra Eid 2024: दिल्ली में ईद-उल-अजहा (बकरीद) के मौके पर लगने वाली पशु मंडियों में अब किलोग्राम के हिसाब से बकरों की खरीद-फरोख्त का चलन बढ़ रहा है. कुछ साल पहले तक बकरों की बिक्री सिर्फ कद-काठी के हिसाब से होती थी, लेकिन इस बार देखने में आ रहा है कि बकरे किलोग्राम के हिसाब से भी बेचे जा रहे हैं. 


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17 जून को मनाई जाएगी  ईद-उल-अजहा (बकरीद) 
तौल के हिसाब से बकरों का कारोबार करने वालों का कहना है कि कोविड के कारण लगे लॉकडाउन से किलोग्राम के हिसाब से बकरों की बिक्री का चलन शुरू हुआ है और लोग इसे अच्छी प्रतिक्रिया भी दे रहे हैं.  ईद-उल-अजहा इस बार 17 जून (Bakra Eid 2024 Date) को मनाई जाएगी. इस त्योहार को ईद-उल-ज़ुहा और बकरीद के नाम से भी जाना जाता है. 


दिल्ली में कहां लगती है बकरों की मंडी
बकरीद पर सक्षम मुसलमान अल्लाह की राह में बकरे या अन्य पशुओं की कुर्बानी देते हैं. इसके लिए हर साल उत्तर प्रदेश के बरेली, अमरोहा, मुरादाबाद, मुजफ्फरनगर, बदायूं के अलावा हरियाणा और राजस्थान से भी बकरा व्यापारी दिल्ली के अलग-अलग इलाके में लगने वाली बकरा मंडियों का रुख करते हैं. पुरानी दिल्ली के मीना बाजार, सीलमपुर, जाफराबाद, मुस्तफाबाद, शास्त्री पार्क, जहांगीरपुरी और ओखला आदि इलाकों में बकरों की मंडियां लगती हैं.


दिल्ली में बिक रहे इस नस्ल के बकरें
दिल्ली की मंडियों में, तोतापरी, बरबरा, मेवाती, देसी, अजमेरी और बामडोली जैसी नस्लों के बकरे बिक्री के लिए लाए गए हैं. जामा मस्जिद के पास मीना बाजार में किलोग्राम के हिसाब से बकरों का कारोबार कर रहे फैजान आलम ने का कहना है कि इस बार तोतापरी, बरबरा, मेवाती नस्ल के बकरे 500 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से बेचे जा रहे हैं. उनके मुताबिक तौल के हिसाब से यह जानवर खरीदना कद-काठी देखकर बकरा खरीदने से सस्ता पड़ता है. 


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अलग-अलग नस्ल के बकरों की कीमत
उन्होंने बताया कि मेवाती और तोतापरी नस्ल का 70 किलोग्राम का बकरा 35 हजार रुपये का पड़ जाएगा. जबकि बिना तौल से खरीदेने पर 50-55 हजार रुपये से कम का नहीं होगा. मेवाती और तोतापरी नस्ल के बकरे ऊंचे और ह्ट्टे-कट्टे होते हैं. साथ ही उनके कान लंबे-लंबे होते हैं. तोतापरी नस्ल के बकरे के नीचे के दांत बाहर और ऊपर के दांत अंदर की तरफ होते हैं. उन्होंने बताया कि किलोग्राम के हिसाब से बरबरे, अजमेरी और देसी नस्ल के सामान्य बकरों की कीमत 450 रुपये प्रति किलोग्राम है और यह 16 से 20 हजार रुपये में मिल जाते हैं. सबसे ज्यादा मांग इन्हीं औसत बकरों की होती है. 


बकरे बेचने का चलन लॉकडाउन से हुआ शुरू
एक अन्य बकरा व्यापारी जावेद इकबाल ने कहा कि तौल के हिसाब से बकरे बेचने का चलन लॉकडाउन के वक्त से शुरू हुआ. जब 280 से 350 किलोग्राम की दर से बकरे बेचे जा रहे थे और तब यह सीमित था, लेकिन इस बार कई व्यापारी किलोग्राम के हिसाब से बकरों का कारोबार कर रहे हैं. वह कहते हैं कि किलोग्राम के हिसाब से बकरों के व्यापार से आम आदमी को फायदा होता है, क्योंकि उसे अंदाजा हो जाता है कि उसने कैसे और कितना भारी पशु लिया है. वहीं बकरा खरीदार मोहम्मद राहीम उलट बात बताते हैं. वह कहते हैं कि तौल के हिसाब से बकरा खरीदने में जानवर महंगा पड़ता है. उनके मुताबिक बकरे को कद-काठी और खूबसूरती के हिसाब से खरीदा जाता है और तौल के हिसाब से खरीदने पर यह कम से कम पांच-सात हजार रुपये महंगा पड़ता है.


हालांकि बाजार में ज्यादातर बकरे कद-काठी के हिसाब से ही बेचे और खरीदे जा रहे हैं. राजस्थान के सीकर के पास झिलका गांव से यहां मीना बाजार आए 60-वर्षीय याकूब ने बताया कि कुछ लोग ही किलोग्राम के हिसाब से बकरे खरीद रहे हैं, जबकि ज्यादातर लोग कद-काठी के हिसाब से बकरों को पसंद कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि वह 16 बकरे लेकर आए थे और अब उनके दो बकरे ही बचे हैं और उनके ज्यादातर बकरे 15 से 20 हजार रुपये की दर से बिके हैं. 


उत्तर प्रदेश के अमरोहा के शेखपुरा गांव से आए 50 वर्षीय अशरफ अली भी कहते हैं कि लोग अब भी कद-काठी और खूबसूरती को देखकर ही बकरों को खरीद रहे हैं. उनके मुताबिक वह 25 बकरे लाए थे, जिनमें से 17 बिक गए हैं और उम्मीद है कि बचे बकरे भी ईद से पहले बिक जाएंगे. पुरानी दिल्ली निवासी नौकरीपेशा मोहम्मद सुफियान ने बताया कि उन्होंने मेवाती नस्ल का बकरा 43 हजार रुपये का खरीदा है. उन्होंने कहा कि किलोग्राम के हिसाब से उन्होंने बकरा कभी नहीं खरीदा और इसलिए वह उस ओर नहीं गए और कद-काठी और खूबसूरती के हिसाब से यह बकरा खरीदा है.


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क्यों मनाया जाता है बकरा ईद का पर्व
इस्लामी मान्यता के अनुसार, पैगंबर इब्राहिम अपने पुत्र इस्माइल को इसी दिन अल्लाह के हुक्म पर अल्लाह की राह में कुर्बान करने जा रहे थे तो अल्लाह ने उनके बेटे को जीवनदान दे दिया और वहां एक पशु की कुर्बानी दी गई थी, जिसकी याद में यह पर्व मनाया जाता है. तीन दिन चलने वाले त्योहार में मुस्लिम समुदाय के लोग अपनी हैसियत के हिसाब से उन पशुओं की कुर्बानी देते हैं, जिन्हें भारतीय कानूनों के तहत प्रतिबंधित नहीं किया गया है. 


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